बुधवार, 10 सितंबर 2008

नक्शे पे अब कुछ नज़र नही आता-बाढ़ है या कि बिहार है क्या है ?



भूतनाथ वाया राजीव थेपरा

(िजसने जहां से देखा...मंजर उसे उदास कर गया। बस एक तकलीफ ही है जिसे हम बांट रहे है...आपस मेें... अपनों से । इस उदासी को भी आपसे बांट रहा हूं, राजीव जी से बगैर पूछे। और इस आशा के साथ कि दुख की ये रात भी आखिरकार ढ़ल जाएगी)

कई दिनों से बिहार के ऊपर उड़ रहा हूँ !बहुत सारे लोगों की तरह मैं भी यही सोच रहा हूँ कि क्या किया जाए , मगर जैसे कि कुछ भी करने का कोई बहाना नहीं होता,वैसे ही कुछ न करने के सौ बहाने होते हैं !सो जैसे धरती के लोग जैसे अपने घर के दडबों में कैद हैं,वैसे ही मैं भी बेशक खुले आसमान में तैर रहा हूँ ,मगर हूँ एक तरह से दड्बो में ही ....!चारों और जो मंज़र देख रहा हूँ ,मेरी रूह कांप रही है .....पानी का ऐसा सैलाब ....तिनकों की तरह बहते लोग ,पशु और अन्य वस्तुएं ......बेबसी,लाचारी,वीभत्सता,आंसू,कातारता,पीडा,यंत्रणा.....और ना जाने क्या-क्या ...! उपरवाला दुनिया बनाकर क्या यही सब देखता रहता है?सीधे शब्दों में बात कहानी मुश्किल हो रही है,थोड़ा बदलकर कहता हूँ ......

ये जो मंज़र-ऐ विकराल है ,क्या है
हर तरफ़ हश्र है,काल है ,क्या है ?
पानी-ही-पानी है उफ़ ,हर जगह ,
कोशी क्यूँ बेकरार है ,क्या है ?
डबडबाई है आँख हर इंसान की
बह रही है ये बयार है ,क्या है?
लीलती जाती है नदी सब कुछ को
गुस्सा क्यूँ इस कदर है,क्या है ?
मुझको अपने ही रस्ते चलने दो
ख्वाहिशें-आदम तो दयार है ,क्या है ?
मैं तो सबको ही भरती चलती हूँ
तुम बनाते हो मुझपे बाँध ,क्या है ?
मुझको हंसने दो खिलखिलाने दो
मुझको छेडो ना इस कदर,क्या है ?
कोई आदम को जा कर समझाओ
धरती का चाक गरेबां है ,क्या है ?
हर तरफ़ खौफ से बेबस आँखें हैं
मौत का इंतज़ार है, क्या है ?
थाम लो ना इन सबको बाहों में
कर रहे जो ये फरियाद है, क्या है ?
कोई आदम का मुकाम समझाओ
हर कोई क्यूँ बेकरार है ,क्या है ?
जो भी बन पड़ता है इनको दे आओ
वरना खुदाई भी शर्मसार है ,क्या है ?
किसने छीना है इनका चैनो-सुकून
वो नेता है, अफसरान है क्या है ?
इनके हिस्से का कुछ भी मत खा जाना
दोजख भी जाओगे तो पूछेंगे, क्या है ?
नक्शे पे अब कुछ नज़र नही आता
बाढ़ है या कि बिहार है ,क्या है ?

साल- दर-साल ये घटना होती है ।होती चली आ रही है ,हजारों लोग हर साल असमय काल-कलवित हो रहे है ,मगर ऐसी लोमहर्षक घटनाओं में भी तो अनेकानेक लोगों की तो चांदी ही कट रही है ! लोग ज़रूरत का सामान भी कई गुना ज्यादा महँगा बेच रहे हैं !नाव वालों का भाव शेयरों की तरह चढा हुआ है ! बहुत सारे राहतकर्मी ग़लत कार्यों में लगे हुए हैं !राहतराशि और सामान बाँटने वाले बहुत सारे लोग यह सब कुछ बीच में ही हजम कर जा रहे है !यह तो गनीमत है कि ऐसे मौकों पर अधिसंख्य लोगों में मानवता कायम रहती है ,सो बहुत काम सुचारू रूप से हो जाता है ,वरना तो पीड़ित लोगों का भगवान् ही मालिक होता !!मैं दंग हूँ कि ऐसे आपातकाल में भी कुछ लोग ऐसे निपट स्वार्थी कैसे हो सकते है ,जो शर्म त्याग कर इन दिनों भी गंदे और नीच कर्मों में ही रत रहे !!हे भगवान् इन्हे माफ़ कभी मत करना !

शनिवार, 6 सितंबर 2008

कौशल्या देवी(मां) को श्रद्धांजली

प्रभात रंजन

कभी कभी सोचता हूं कि चन्द्रशेखर भाई जैसे लोग आखिर कैसे बनते हैं? सीवान जैसे शहर के एक दूर दराज गांव में पैदा होने वाला लड़का... कद-काठी समान्य...बाप- दादा की दी हुई कोई जागीर नहीं... लेकिन फिर भी ऐसा असाधारण व्यक्तित्व । अन्दर और बाहर दोनो की सादगी , जीवट और स्वाभिमान... चन्द्रशेखर भाई में कई ऐसी चीजें थी जो हम जैसो को जेएनयू के जमाने से प्रभावित करती थी। उनकी हत्या के बाद के सालों में धीरे - धीरे मैने समझा कि चन्द्रशेखर भाई को उनकी तालीम ने नहीं बल्कि मां ने बनाया था । अपने इकलौते बेटे की मृत्यु के बावजूद जो टूटे नहीं ऐसी औरत ही चन्द्रशेखर की मां हो सकती थी । चन्द्रशेखर भाई की हत्या के समय मैं सीवान में ही था । उनकी हत्या का विरोध करने जेएनयू के कुछ छात्र सीवान आए थे । तब के सीवान में शहाबुद्दीन का आतंक इतना था कि जेएनयू के वो छात्र जो सीवान से थे , इस विरोध सभा में शामिल नहीं हुए । खैर मैं उनकी कायरता का बखान नहीं करना चाहता । बस एक उम्रदराज, अकेली औरत के हिम्मत का जिक्र करना चाहता हूं। देश के गृहमंत्री ने मुआवजे के तौर पर एक लाख रूपए की रकम कौशल्या देवी को देने की पेशकश की । इकलौते बेटे के जाने के बाद वो रूपए एक अकेली औरत के लिए बड़ा सहारा बन सकते थे। लेिकन मां ने रूपए लेने से इंकार कर दिया । अगर कुछ मांगा तो बस इतना कि उनके बेटे के कातिल को सजा दी जाए । खैर राजनीतिक कारणों से इन्द्रजीत गुप्ता ऐसा नहीं कर सकते थे , नहीं किया । लेकिन कौशल्या देवी ने हार नहीं मानी। विरोध की जिस मसाल को चन्द्रशेखर भाई ने सीवान में जलाया उसे आगे बढ़कर उन्होने थाम लिया । िजसका नाम लेते हुए भी सीवान को लोग डरते थे , उसके खिलाफ उन्होने मोर्चा संभाल लिया । एक और प्रशासन और सरकार से शहाबुद्दीन को सजा देने की मांग करती रही तो दूसरी और हर मंच से शहाबुद्दीन को चुनौती देती रही कि अगर दम है तो मुझे मार कर दिखा । अपने लोगों को इंसाफ दिलाने के लिए , अधिकार दिलाने के लिए , विधान सभा का चुनाव भी लड़ा । कौशल्या देवी सीवान में शहाबुद्दीन के खिलाफ प्रतिरोध की दीवार बन गईं । एक अटल , मजबुत दीवार । अब ये दीवार नहीं रही। दो दिन पहले कौशल्या देवी का देहांत हो गया है। न्याय के लिए ग्यारह साल लड़ने के बाद आखिरकार मां ने आंखे बंद कर ली । जिन्दगी जैसे अभावग्रस्त रही , मौत भी वैसी ही ...चुपचाप। आइए कोशल्या देवी को श्रद्धांजली दे और ईश्वर से प्रार्थना करे कि हमारे समाज में बहुत सारी कोशल्या देवी हो । क्योंकि कौशल्या ही चन्द्रशेखर को बनाती है।

बुधवार, 20 अगस्त 2008

पतझड़ के बाद का दुख

सुनन्दा राय
-इलाहाबाद से ये कविताएं सुनन्दा ने भेजी है... एक हल्के से संकोच के साथ । लिखा है - कच्चा पका सा कुछ लिखती हूं , जिसे मुमकिन है लोग, कविता की श्रेणी में ना रखे - लेकिन पूरी होने के बाद तो कविता स्वायत्त होती है जिस पर लिखने वाले का भी कोई जोर नहीं चलता ..... इसलिए अब पढ़ने वालों की राय ही मान्य होगी

(एक)

रोज टूटते हैं
पत्ते-
दरख्त नहीं मैं जानती हूं
पतझड़ के बाद का दुख ।


(दो)

सो जाती हूं तब
पैर दौड़ते हैं
तुम्हारे पीछे - पीछे ।
हाय री- गुड़िया रानी
कित्ता - कित्ता पानी ।


(तीन)

नुक्कड़ की दुकान से
दस रूपए का गुलाब खरीदकर
दिया उसने
और कहा - प्यार
वह एक शरीफ दुनियादार आदमी था।

(चार )

दो अंगुल की बुद्धि
मां की
चावल का पानी नापती रही
मैं दो अंगुल से देखती हूं
दुनिया
कितने पानी में ।

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

मारे गए गुलफाम

प्रभात रंजन
बात इतनी सी थी कि, दीवार गिरने से, एक बकरी मारी गई थी । राजा के इंसाफ का तकाजा था कि बकरी के जान के बदले में दोषी आदमी को फांसी दी जाए । लेकिन ये भी गजब हुआ कि भिश्ती से लेकर कोतवाल तक सभी बारी- बारी बेगुनाह साबित हुए । अब बेचारा राजा इंसाफ करे भी तो कैसे करे । गहरे दुख में डूब गया राजा । आखिरकार राजा को बचाया मंत्री ने ... एक तरकीब बताई - किसी तगड़े आदमी के गले में डाल दो फांसी का फंदा , क्योंिक इंसाफ होना जरूरी है । ये कहानी लोगो ने पहले से सुन रखी थी ,इसलिए खुश थे क्योंकि आखिरकार फंदा मोटे - तगड़े आदमी के गले से उतरकर लालची राजा के गले में ही जाना था । बैकुठ के लालच में राजा को मारा जाना था । लेकिन कहानी ने छल किया ( बाद में कुछ लोगो ने कहा कि ये दरअसल समय का छल था)। तगड़े आदमी के ईशारे पर राजा ने भीड़ की तरफ फंदा उछाला । कई -कई फंदे एक साथ । कोई समझे तब तक कस गई रस्सी, गर्दन के चारो ओर। कई - कई गर्दन एक साथ । पलक झपकते झूल गए जिस्म हवा में । प्रतिरोध का कोई मौका नहीं , संभलने का कोई संकेत नहीं । तब राजा ने प्रजा की ओर देखा और शब्दों को चबाते हुए कहा कि - आइंदा हमारे राज्य में कोई बकरी नहीं मरनी चाहिए । जनता मौन - स्तब्ध । मरघट सा सन््नाटा काफी देर तक फैला रहा । बाद में, वहां मौजूद कुछ लोगो ने बताया कि इस नरसंहार के बाद राजा ने िमठाईयां बांटी । चुटकुले सुनाए और लोगो को हॅसने की राय दी । अब लोग हॅसने का प्रयास कर रहे है । हम कल भी हॅसेगे.

धर्म की आंच पर कश्मीर सुलग रहा है .... नोएडा के कुछ किसान परिवारों में मातम का माहौल है... संसद में कुछ दिन पहले ही लोकतंत्र को निर्वस्त्र किया गया है ... कुछ लोगो पर बेहद जुल्म हुआ है .... मेरे साथी , मेरे पड़ोसी जार - जार रो रहे है ... बावजूद इसके हम हॅसेगे। हॅसना सेहत के लिए बेहतर है । देश की आजादी की सालगिरह मुबारक दोस्तो । राजा अमर रहे ।

बुधवार, 23 जुलाई 2008

जिसका गुन हरचरना गाता है....

मिथिलेश कुमार सिंह

आइए...भारतीय राजनीति के मछली बाजार
में...मैं आपका स्वागत करता हूं...हिचकिए मत...चले आइए...अगर आप शरीफ
हैं...इस बाजार से आपका पहले वास्ता नहीं पड़ा है...तो नाक पर रूमाल रख
लीजिए...सड़ांध है यहां...आप गश खाकर गिर सकते हैं...मुझे आदत है...मैं
आम आदमी हूं...इस बाजार के फरमान ही मेरी तकदीर तय करते हैं...मुझे कितना
कमाना है...कितना खाना है...कितना बोलना है...कितना लिखना है...सब यही
लोग बताते हैं....चौंकिए मत...हम गुलाम नहीं हैं...आजाद हैं...और ये जो
बाजार है ना साहब....इसे हमारे लोग संसद कहते हैं...इसमें हमारे नुमाइंदे
रहते हैं...कितने प्यारे चेहरे हैं...वो कहते हैं ना साहब के....
"सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है...
मगर जब गुफ्तगू करता है चिंगारी निकलती है...
कुछ ऐसा ही है यहां....हम तो इसकी पूजा करते थे...लेकिन पिछले कुछ सालों
से हमारा इस मंदिर से भरोसा उठ गया...कुछ अजीब सा माहौल है यहां...पहले
मुद्दों पर बहस होती थी....आज बहस में से लोग मुद्दे निकालते हैं....चोर
हैं यहां...उचक्के हैं...दमड़ी के दलाल हैं सब...बच के ना रहे तो चमड़ी
भी उधेड़ लेंगे...देखा ना आपने....नोटों की गड्डियां....हमारे मंदिर
में...चलो साहब...इसी बहाने देश के करोड़ों लोगों ने करोड़ रूपया तो देख
लिया...नहीं तो सबसे बड़ी नोटों की गड्डी तो तभी दिखती हैं जब बाबू जी
बहन की शादी के लिए दहेज का पैसा घर लाते हैं...खैर संसद में चोर-उचक्के
बैठेंगे तो यही होगा ना...अरेरेरे...घबराइये मत...ये शोर तो यहां आम बात
है....ये शोर ना हो तो बाजार का फील ही नहीं होता...ऊंघने लगते हैं
लोग...देश जाए खड्डे में...बहस न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर...और यहां
सिर्फ उखाड़े गए गड़े मुर्दे...खींचा-तानी चलती रही...खूब कीचड़ उछाले
गए....अपनी पीठ ठोंकी गई...क्या करें साहब...अब सीना ठोंकने की किसी की
औकात नहीं रही...कैरेक्टर नहीं रहा ना साहब....सब अपने जुगाड़
में...सरकार गिरी तो अलाने का फायदा....नहीं गिरी तो फलाने का....देश गया
खड्डे में...शशिकला का बेटा कलेक्टर बनेगा...लोग मुस्कुरा रहे थे
साहब...बिजली नहीं है...पानी नहीं...पता नहीं बड़ा होगा भी या
नहीं....विदर्भ का है ना साहब...क्या पता...वो तो रोटी बेलता है...खेलने
वाले तो यहां बैठे हैं...सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं...सबकी 'पाइपलाइन'
में बड़े-बड़े प्रोजेक्ट हैं...पाइपलाइन समझते हैं ना....ये गड्डियां उसी
पाइपलाइन से आती हैं...खैर...दो दिन खूब मजा आया...दुश्मन दोस्त बन
गए....दोस्त दुश्मन बन गए....जिन घोड़ों को चार साल किसी ने घास नहीं
डाली...आज घुड़दौड़ के समय उन्होंने खूब नखरे दिखाए...जम के कलाबाजियां
खाईं....जब तक पेट नहीं भरा...हिनहिनाए नहीं....हमारा देश सेकुलर
है...हमें भी इन्हीं लोगों ने बताया...कौन सेकुलर हो कौन नहीं...यही हमें
बताते हैं...खैर साहब...शुरूआत विडंबना से हुई थी...खत्म भी वहीं से करते
हैं....विडंबना ये कि जो बहस मंहगाई और आत्महत्या के मुद्दे पर होनी
चाहिए थी...वो न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर हो रही थी...विदेश नीति आम
आदमी नहीं जानता भाई...उसे ये पता है कि प्याज और पेट्रोल मंहगा होगा तो
सरकार को वोट नहीं देना है...विडंबना ये कि देश के सम्मान का प्रतीक रहे
इस मंदिर में जेल से सवारियां आती हैं...विडंबना ये कि स्वस्थ बहस की
परंपरा दम तोड़ रही है...संसद में लहरा रही हैं नोटों की
गड्डियां....कितनी गिनाएं...कहां तक गिनोगे...छोड़ो साहब...चलो...पेप्सी
वाला ब्रेक लेते हैं....रात में दो पैग रम मारेंगे...सारे गम सुबह तक
साफ....फिर वही जन-गण-मन गाएगा हरचरना....फटा सुथन्ना पहने....अपना लड़का
है साहब...सपने तो देखो स्साले के....लीडर बनना चाहता है....

तमाशा-ए -अहल-ए-करम देखते हैं

प्रभात रंजन

कल की बात है । घर से अॉफिस के दरम्यान मेरे साथ एक हादसा हुआ । हादसा कुछ यूं नहीं कि सिर-पैर- हाथ टूट जाएं । हुआ कुछ यूं कि दिमाग कि नसें झनझना गईं। मैं बस में चलता हूं और दिल्ली की बसों में आए दिन किसी न किसी ऐसी चीज का सामना होता ही रहता है कि बस चुप रह जाइए । ये हादसा जिसका जिक्र है ... लेकिन कुछ अलग था। जिस सीट के पास में खड़ा था, उसपर एक तोंदधारी महाशय मय साजो समान अपने पुत्र के साथ कुछ इस तरह बैठे थे कि जैसे तख्ते- ताउस पर बैठे हों। खैर .. बस में खड़ा आदमी एक अदद सीट की आरजू रखता है । मैं भी अपनी आरजूओं को अपनी नजरों में समेटे आगे-पीछे देख रहा था कि अचानक मेरे साथ यात्रा कर रहे मेरे साथी दीपक जी ने मेरा घ्यान इस हादसे की ओर खिंचा । सीट के ठीक ऊपर सफेद हर्फों में लिखा था ... विधायक । सीट की फिक्र कहीं सरक गई। माथे पर कुछ पसीने की बुंदे थी ...गायब हो गई। दिल्ली में सीटों के अलग- अलग तरीकें के अारक्षण मैनें देखे हैं । महिलाओं का एक तिहाई सीटों पर दावा तो खैर काफी पहले से है ... लेकिन जब से प्राइवेट बसें चलनी शुरू हुई , कुछ और नई श्रेणियां भी बनी ।पहले स्वतंत्रता सेनानी और बाद में स्वतंत्रा सेनानी के विधवाअों के लिए भी एक सीट की गुंजायश बनाई गई । दिल्ली के बस मालिकों की ओर से ये उपहार शायद कारगील युद्ध के बाद दिया गया था । वरिष्ठ नागरिकों का भी ख्याल प्राइवेट बसों में रखा गया और एक सीट खासतौर पर उन्हें भी मुहैया कराई गई। वरिष्ठों के आगे वाली सीट पहले से ही विकलांगों के लिए थी , आज भी है । खैर इतने सारे आरक्षणों के बाद जब विधायकों के लिए सीट का इंतजाम देखा तो , कलेजा मुंह को आ गया । कई भाव एक साथ आए और इतनी जल्दी आए कि आखिर में कुछ नहीं बचा । दिल्ली की बात तो जाने दीजिए , हिन्दुस्तान का कोई भी विधायक बसों में सफर नहीं करता होगा, तो विधायक के लिए दिल्ली की किसी बस में सीट सुरक्षित रखने का क्या आशय हो सकता है? मुमकिन है बस- मालिक अपने तरीके से लोकतंत्र का सम्मान करना चाहता हो। लेकिन विधायक जी को सीट मुहैया कराने के बाद सोंचने वाली बात ये है कि एक आम नागरिक के लिए कुल कितनी सीटें शेष रह गईं । एक और बात जिसपर मेरी तरह हर गरीब और असहाय नागरिक ने ध्यान दिया होगा । सरकारी बसों में कंडक्टर के लिए पीछे की ओर एक सीट खासतौर पर बनी होती है ,जिसपर किसी भी हालत में कोई यात्री नहीं बैठ सकता। पुरी सीट पर पलथी मार के कंडक्टर साहब कुछ ऐसे बैठते है कि जैसे बस उनके पुरखों ने उन्हे विरासत में दी हो और दुसरों को बिठा कर वे एहसान कर रहे हों। खैर ये तो सरकारी महकमे की बात है... प्राइवेट बसें तो इस मामले में भी आगे निकल गईं । कंडक्टर के लिए एक सीट पीछे तो थी ही , एक सीट आगे भी रखी गईं । ये अलग बात है कि इन दोनों सीटों पर कंडक्टर साहब शायद ही कभी बैठते हैं। सभी जानते है कि कंडक्टर साहब के कोटे की ये सीटें किसी लड़की या महिला को बतौर उपहार मुहैया कराई जाती हैं। अगर गलती से आप बैठ गए तो ये कंडक्टर की शान में गुस्ताखी मानी जाएगी , लेकिन अगर कोई महिला उस सीट पर नहीं बैठकर खड़ी रह जाए तो ये कंडक्टरी मेहमांनवाजी की तौहीन मानी जा सकती है ।वैसे ये तौहीन अक्सर नहीं की जाती । खैर, अब नई- पुरानी सभी श्रेणियों को दी गईं सुरक्षित सीटों में अगर कंडक्टर साहब की दो सीटें भी जोड़ दी जाए तो बस में आम आदमी के लिए कोई जगह नहीं बचती । है भी नहीं । अब बचा पत्रकार ... वैसे तो विधायक की तरह ये जन्तु भी बसों में शायद ही सफर करता है । अगर बिल्कुल ही नया हो और किसान - परिवार से हो तो अलग बात है , वरना हीरो- होन्डा तक तो उसकी पहुंच हो ही गई है। पॉल गोमरा का स्कूटर जब से दुर्घटनाग्रस्त हुआ , तब से कोई पत्रकार स्कूटर नहीं चलाता । लेकिन कुछ मेरे जैसे पत्रकार अभी भी है जिन्हें अपनी सवारी आज भी मयस्सर नहीं और बसों में खड़े - खड़े सफर करना जिनका नसीब है । सो चला जा रहा हूं और सोंच रहा हूं कि जाने कब दिल्ली के बस मालिकों को अक्ल आएगी और वे पत्रकारों के लिए भी एक सीट सुरक्षित करने का फैसला करेंगे ।

रविवार, 13 जुलाई 2008

एक ताज़ा खबर और लड़की

मिथिलेश कुमार सिंह
(इस ब्लाॉग पर कविता को लेकर खासी चर्चा हो चुकी है ... और इसीलिए किसी भी कविता को यहां देने से पहले एक संशय लाजिमी था... फिर भी मिथिलेश की ये कविता एक बार पढ़े जाने की मांग करती है ... इसलिए इसे सरेआम करने को मजबुर हूं .... मिथिलेश अच्छे टीवी पत्रकार तो हैं ही , सोंचते भी अच्छा हैं )


आपको नहीं लगता...कभी-कभी...
कि लड़कियां भी खबरों की तरह होती हैं...
कुछ अच्छी...कुछ बुरी...
कुछ टाइम पास...
कुछ बेकार...कुछ चलने वाली लड़कियां/खबरें
कुछ में टीआरपी होती है...
जैसे कुछ लड़कियों में...
कुछ खबरें अच्छी होती हैं...
लेकिन टीआरपी नहीं देतीं...
इसलिए नहीं चलतीं...
अच्छी खबरों की चर्चा कम ही होती है...
जैसे अच्छी लड़कियों की...
हर कोने में लोगों की निगाहें
सिर्फ नई खबरों ? पर होती हैं...
जैसे हर मर्द ? की नई लड़कियों पर...
खबरें जुटाई जाती हैं...
जैसे लड़कियां...
फिर शुरू होती है
खबरों की नक्काशी...
उन्हें सजाया जाता है...
जैसे लड़कियों को सजाते हैं...
खबरों को देखने लायक बनाते हैं...
जैसे लड़कियों की नुमाइश होती है...
नक्काशीदार खबर...
तराशी हुई लड़की...
तैयार है परोसने के लिए...
फिर खबरों से खेलते हैं...
जैसे लड़कियों से...
लोग चटखारे लेंगे...
लार टपकाएंगे...
अफसोस करेंगे...
जांघें खुजलाएंगे...
फिर निगाहें गड़ा देंगे अगली खबर पर...
जैसे अगली लड़की पर...
गुम हो जाती हैं खबरें ...
इस पूरी प्रक्रिया में...
सजाने और परोसने में...
जैसे कहीं गुम हो जाती है लड़की...

रविवार, 22 जून 2008

दि थर्ड वर्ल्ड

गुलज़ार साहब की नज़्म
(आज किताबों की धुल पोंछते हुए करीब एक दशक से ज्यादा पुरानी एक  मैगजीन में गुलज़ार साहब की  ये नज़्म मिल गई । तब नई थी और मौज़ूं भी... । पढ़ने में  आज भी अच्छी लगी तो ले आया )


जिस बस्ती में आग  लगी थी कल की रात 

उस बस्ती में मेरा  कोई नहीं  रहता था,

औरतें बच्चे, मर्द कई और उम्र रसीदा लोग सभी , वो

जिनके सर पे जलते हुए शहतीर गिरे 

उनमें मेरा कोई नहीं था ।

स्कूल जो कच्चा पक्का था और बनते बनते खाक हुआ

जिसके मलबे में वो सब कुछ दफ़न हुआ जो उस बस्ती का 

मुस्तक़बिल कहलाता था

उस स्कूल में-

मेरे घर से कोई कभी पढ़ने न गया न अब जाता था

न मेरी दुकान थी कोई 

न मेरा सामान कहीं ।

दूर ही दूर से देख रहा था

कैसे कुछ खुफ़िया हाथों ने जाकर आग लगाई थी ।।

जब से देखा है दिल में ये खौफ बसा है

मेरी बस्ती भी वैसी ही एक तरक्की करती बढ़ती बस्ती है 

और तरक्कीयाफ़्ता कुछ लोगों को ऐसी कोई बात पसंद नहीं।।

गुरुवार, 12 जून 2008

तब तो ओबामा हार जाएगें।

जैसे ही हिलेरी क्लिंटन की दावेदारी ख़त्म हुई वैसे ही कहा ये जाने लगा कि हिलेरी ओबामा का समर्थन करेगी। इसके बाद से ही हिलेरी के समर्थक असमंजस में हैं। अमेरिका में कई सर्वेक्षण इस तरफ इशारा कर रहे हैं कि हिलेरी को समर्थन देने वाले कई वर्ग ओबामा का समर्थन करने के मूड में नहीं है। उनका वोट सीधे रिपब्लिकन राष्ट्रपति उम्मीदवार जॉन मेक्कन को जा सकता है। इस दौड़ में सबसे आगे हैं, वो श्वेत अमेरिकी जो कामकाजी वर्ग यानी वर्किंग क्लास से आते हैं। दूसरा सबसे बड़ा वर्ग है हिलेरी को समर्थन देने वाली महिलाएं। ये महिलाएं हिलेरी के बाद अब मेक्कन की ओर देख रही हैं।
शिकागो ट्रिब्यून मैगज़ीन ने 2004 में ही छापा था कि ओबामा को इसलिए कुछ श्वेत पसंद करते हैं, क्योंकि वो पूरी तरह काली नस्ल के नहीं है। मतलब ये कि चूंकि ओबामा की मां एक अमेरिकी श्वेत और पिता अफ्रीकी, इसलिए उन्हें पूरी तरह अश्वेत नहीं माना जा सकता, लेकिन अगर वो पूरी तरह अफ्रीकी नस्ल के होते तो। आज अमेरिका में ये बहस चरम पर है कि बराक ओबामा देश की विदेश नीति और आर्थिक नीति को संभालने और आगे बढ़ाने के लिए सही आदमी नहीं है। एक बड़ा वर्ग ये प्रचारित करने में जुटा है कि अमेरिका ओबामा के हाथों में सुरक्षित नहीं है।
अगर ओबामा हारते हैं तो उसका एक बड़ा कारण होगा उनका पूरा नाम ही। यानी "बराक हुसैन ओबामा" । इस नाम में लगा हुसैन बड़ा गुल खिला सकता है। लेकिन साथ ही महाशक्ति को आज इस नाम की ज़रुरत भी है, ख़ासकर 9/11 के मुस्लिम विरोधी अभियान के बाद। अमेरिका के जाने टिप्पणीकार अपने एक लेख में लिखते हैं कि ओबामा के साथ ही नस्लवाद का अंत हो जाएगा। क्या नस्लवाद के अंत के लिए ओबामा का इंतज़ार था जिसे ख़ुद मार्टिन लूथर किंग जूनियर भी नहीं मिटा सके। अमेरिका की एक पत्रिका लिखती है कि अमेरिकी की आर्थिक मंदी, बढ़ती महंगाई, विदेशी नीति की असफलता और इराक़ जैसे घावों के बाद भी अगर रिपब्लिकन उम्मीदवार ओबामा को हरा देता है तो इसका सिर्फ एक ही कारण होगा और वो है नस्लवाद। जाने माने इतिहासकार पॉल स्ट्रीट मानते हैं कि ओबामा को नस्लवादियों का सामना करना होगा।
अंत में। क्या मैं ये साबित कर रहा हुं कि अमेरिका आज भी नस्लवादी है? अगर ऐसा है तो कुछ दूसरे तथ्यों पर नज़र डालें। वियतनाम युद्ध के दौरान मारे गए अमेरिकी अश्वेत सैनिकों की संख्या श्वेत सैनिकों के मुक़ाबले दोगुनी थी। इसी दौरान न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा, हब्शियों को वियतनाम में अपने देश के लिए अपने हिस्से की लड़ाई करने का पहली बार मौका दिया गया है। यही नहीं उन काले सैनिकों को अलग दफनाया भी गया। ये तो हुई थोड़ी पुरानी बात, कुछ नए तथ्य। आज अमरीका की कुल आबादी के 12 फ़ीसदी अफ्रीकी सभी सशस्त्र बलों में 21 फीसदी और अमेरीकी सेना में 29 फीसदी हैं, जबकि वे अमरिका की कुल आबादी का सिर्फ 12 फीसदी है। इराक़ में भी यहीं अश्वेत बलिदान देने में आगे हैं। क्या ये सिर्फ एक संयोग है। मतदान का अधिकार लेने के लिए कड़े संघर्ष के बाद आज 14 लाख अफ्रीकी अमरीकियों यानी वोट देने वाले अश्वेत लोगों की 13 फीसदी आबादी को मामूली अपराधों के कारण मताधिकार से वंचित कर दिया गया है। यानी तब तो ओबामा हार जाएगें।

शनिवार, 7 जून 2008

ख़बर ख़ास है...

        प्रभात रंजन


इतिहास  को भले ही  बदला नहीं जा सके , लेकिन आंखो में अगर शर्म हो तो अपनी कारगुजारियों के िलए माफी तो मांगी ही जा सकती है। ब्रिटिश इतिहासकार अॉिलवर बियारर्स को भारत पर ब्रिटिश जुल्म ने इस कदर आहत किया कि, उन्होने इसके लिए सरेआम माफी मांगने का इरादा बना लिया। फिर क्या था अॉलिवर निकल पड़े अपने घोड़े पर । अंदाज थोड़ा शाही है लेकिन तेवर ठेठ हिन्दुस्तानी । दोनो हाथ जोड़कर अॉलिवर रास्ते में मिलने वाले सभी लोगो से 1857 के विद्रोह के दौरान हुए अत्याचारों की माफी मांग रहे है। खेतों में , सड़को पर - किसानो से और मजदूरों से- अॉलिवर सभी से मुखातिब होते हैं।  शिमला से शुरू हुआ इस हैम्पशायर के इितहासकार का सफर हरियाणा और दिल्ली होते हुए ,मेरठ तक जायेगा। अाखिरकार मेरठ से ही तो 1857 के विद्रोह की चिंगारी फूटी थी । बाद में बेहिसाब ताकत के बल पर  आजादी के िलए  इस पहली चीख को दबा दिया गया था। लाखों की तादाद में लोग मार डाले गए । आज 150 सालों बाद अॉलिवर इसी दमन की माफी मांग रहे है । वैसे तो तब के  ब्रिटिश हुकूमत के दामन पर और भी कई गहरे दाग है , लेकिन कभी भी ब्रिटेन की सरकार ने उसके लिए  शर्मिन्दगी नहीं दिखाई। अॉलिवर जो कुछ भी कर रहे है उसके िलए वे तारीफ के साथ - साथ हमारे प्यार के भी हकदार है । वैसे तो  माफी मांगने के बावजूद भी इतिहास  नहीं बदलता ... लेकिन कम से कम इंसानियत का तकाजा तो पूरा होता है । 


ख़बर ख़ास है... इंडिया न्यूज दिस विक का एक हिस्सा है 

बुधवार, 4 जून 2008

जब तलक रिश्वत न ले हम दाल गल सकती नहीं, नाव तनख़्वाह की पानी में तो चल सकती नहीं।

आज से लगभग 60 साल पहले जोश मलीहाबादी का लिखा ये शेर उनके पहले भी लागू होता था और आज भी हर्फ-ब-हर्फ लागू होता है। ये सच्ची कहानी है कि एक बाप उस दिन बहुत खु़श हुआ। जब उसके दो बेटों में से छोटा बेटा सिविल इंजीनियर बना और टेबल के नीचे के कारोबार से कुछ ही सालों में खू़ब पैसे पीट डाले। खपरैल, दो मंज़िला इमारत में तबदील हो गई। गांव भर में उसने ऐलान किया कि "ये है मेरा लायक बेटा"। अगले दिन ही बाबूजी मोटरसाइकिल के शहर निकले। गढ़ढ़ों के बीच सड़क ढ़ूंढते-ढ़ूंढते हीरोहोंडा पस्त हो गई। उसने हाई-वे पर ऐलान कि "सब साले चोर हैं, सड़क बनाने के नाम पर इंजीनियर से लेकर ठेकेदार तक जनता को धोखा दे रहे हैं। पता नहीं इस देश का क्या होगा।"
कौटिल्य ने हज़ारों साल पहले अपने अर्थशास्त्र में लिखा था कि शासन में भ्रष्टाचार 40 तरीके से अपनी जगह बनाता है। कमाल की बात है कि आज भी उनकी बात जस की तस है। तरीके बढ़ गए हों तो कह नहीं सकते। अभी इस पर शोध करना शेष है। एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था भ्रष्टाचार विरोधी उपायों के मामले में हमें 10 में से सिर्फ 3.5 (साढ़े तीन) नंबर देती है। लेकिन ख़ुश होने वाली बात ये है कि भ्रष्टाचार की इस शर्माने वाली ऊंचाई पर अकेले हम हीं नहीं खड़े बल्कि चीन, ब्राज़ील जैसे देश भी हैं। विकसित अर्थव्यवस्था में काफी ऊपर मौजूद जापान भी सबसे भ्रष्ट देशों में गिना जाता है। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में तो कई प्रधानमंत्रियों का नाम ही भ्रष्टाचार के आरोपों से साथ लिया जाता है।
मैं कहना चाह रहा था कि ये हमाम ऐसा है जहां सभी ये कह कर भी पल्ला नहीं झाड़ सकते कि ये अंदर की बात है। एक आकलन कहता है कि अगर भ्रष्टचार 1 फीसदी कम हो जाए तो विकास दर 1.5 फीसदी तक बढ़ सकती है। क्योंकि इसकी सबसे ज्यादा मार ग़रीबों पर पड़ती है। एक सर्वेक्षण तो ये भी कहता है कि ग़रीबों की 25 फीसदी कमाई घूस देने में ही चली जाती है। लेकिन ये चर्चा ही बेमानी है क्योंकि लगता है कि ये मुद्दा सुर्खियां तो बन जाती हैं, लेकिन हमें परेशान नहीं करती। हम इसे ठहराने लगे हैं। जयललिता से लेकर लालू तक को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि भ्रष्टाचारी होने का आरोप वोट कटने का कारण नहीं बनता। एक बदलाव ज़रुर आया है, और वो है आज अपना उल्लू सीधा करने के लिए सूचना के अधिकार का इस्तेमाल ख़ूब हो रहा है। अब तो इसके लिए बजाप्ता ऐजेंटी भी होने लगी है। मैं इधर सोच रहा हूं कि जब ये पूरी दुनिया में फैला है तो क्या हमें इस पर सिर खपाने की ज़रुरत है। ये तो आप ही बताएं ?

गुरुवार, 29 मई 2008

जरा देखिए, रिल्के क्या कहते हैं कविता लिखने वालों के लिए

एक अच्छी कविता लिखने के लिए तुम्हें बहुत से नगर और नागरिक और वस्तुएं देखनी-जाननी चाहिए। बहुत से पशु और पक्षी ...पक्षियों के उड़ने का ढब, नन्हें फूलों के किसी कोरे प्रात: में खिलने की मुद्रा, अज्ञात प्रदेशों ...अनजानी सड़कों को पलटकर देखने का स्वाद। अप्रत्याशित से मिलन। कब से अनुमानित बिछोह। बचपन के अनजाने दिनों के अबूझ रहस्य, माता-पिता जिन्हें आहत करना पड़ा था, क्योंकि उनके जुटाए सुख उस घड़ी आत्मसात नहीं हो पाए थे। आमूल बदल देनेवाली छुटपन की रुग्नताएं। खामोश कमरों में दुबके दिन। समुद्र की सुबह। समुद्र ख़ुद। सब समुद्र। सितारों से होड़ लगाती यात्रा की गतिवान रातें।
नहीं, इतना भर ही नहीं। उद्दाम रातों कि नेह भरी स्मृतियाँ ...प्रसव पीड़ा में चीखती औरत। पीली रोशनी। निद्रा में उतरती सद्य: प्रसूता। मरणासन्न के सिरहाने ठिठके क्षण। मृतक के साथ खुली खिड़की वाले कमरे में गुजारी रात्रि और बाहर बिखरा शोर।
नहीं, इन सब यादों में तिर जाना काफी नहीं; तुम्हें और भी कुछ चाहिए ....इस स्मृति -सम्पदा को भुला देने का बल। इनके लौटने को देखने का अनंत धीरज .....जानते हुए कि इस बार जब वह आएगी तो यादें नहीं होंगी। हमारे ही रक्त, मुद्रा और भाव में घुल चुकी अनाम धप-धप होगी, जो अचानक, अनूठे शब्दों में फूटकर किसी घड़ी बोल देना चाहेगी, अपने आप।
.......एक ही काम है जो तुम्हें करना चाहिए - अपने में लौट जाओ। उस केन्द्र को ढूंढो जो तुम्हें लिखने का आदेश देता है। जानने की कोशिश करो कि क्या इस बाध्यता ने तुम्हारे भीतर अपनी जड़ें फैला ली हैं? अपने से पूछो कि यदि तुम्हें लिखने की मनाही हो जाए तो क्या तुम जीवित रहना चाहोगे? ...अपने को टटोलो...इस गंभीरतम ऊहापोह के अंत में साफ-सुथरी समर्थ 'हाँ'' सुनने को मिले, तभी तुम्हें अपने जीवन का निर्माण इस अनिवार्यता के मुताबिक करना चाहिए। या फिर
अगर अपना रोज का जीवन दरिद्र लगे तो जीवन को मत कोसो। अपने को कोसो। स्वीकारो कि तुम उतने अच्छे कवि नहीं हो पाए कि अपनी रिद्धियों-सिद्धियों का आह्वान कर सको। वस्तुतः रचयिता के लिए न दरिद्रता सच है, न ही कोई स्थान निस्संग। अगर तुम्हें जेल की पथरीली दीवारों के अंदर रख दिया जाए जो एकदम बहरी होती हैं, और एक फुसफुसाहट तक भीतर नहीं आने देतीं, तब भी तुम्हें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। तुम्हारे पास बचपन तो होगा...स्मृतियों की अनमोल मंजूषा...एकांत विस्तृत होकर एक ऐसा नीड़ बनाएगा, जहाँ तुम मंद रोशनी में भी रह सकोगे।

तेल की फिसलन !

ओमप्रकाश
सब सांस रोके इंतज़ार कर रहे हैं कि पेट्रोल-डीज़ल के दाम आज बढ़े कि कल । बढ़ेगें तो ज़रुर। एक कमाल की बात है। एक तरफ सरकार और सरकारी तेल कंपनियां इस बात पर माथा खपा रही हैं कि बढ़ते पेट्रोलियम सब्सिडी से कैसे छुटकारा मिले। क्योंकि, चालू वित्तिय साल में ये सब्सिडी 2 लाख करोड़ के पार जा सकती है। ये राशि इतनी है कि भारत निर्माण और राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना की पूरी राशि भी बौनी साबित हो जाए। सरकारी तेल कंपनियों को हर दिन 600 करोड़ का नुकसान हो रहा है। लेकिन राजनीति ने पांव जकड़ रखे हैं। भाई, तेल के दाम कौन बढ़ाना चाहेगा, वो भी चुनावी बेला में। लेकिन मज़े की बात कि सरकार अपने राजस्व में कोई कमी करने को तैयार नहीं है। एक लीटर पेट्रोल या डीज़ल पर जो पैसे हम चुका रहे हैं, उसका लगभग 50 फीसदी सरकारों के पास कमाई के रुप में जाता है और 50 फीसदी सरकारी तेल कंपनियों के पास।
आज देश में कच्चे तेल के आने के बाद हमारी सरकारें कुल चार तरह के कर आम जनता से वसूलती है। आज भी जब महंगाई 8 फीसदी के आसपास मंडरा रही है, तब भी इन करों में कोई राहत नहीं है। चाहे आयात कर हो या सीमा शुल्क, उत्पाद शल्क हो या राज्यों के बिक्री कर। आज हमारे देश में पेट्रोलियम उत्पादों पर 32 फीसदी से ज्यादा उत्पाद शल्क वसूला जा रहा है, जबकि चीन में ये मात्र 5 फीसदी है तो पाकिस्तान में सिर्फ 2 फीसदी। इस बीच कई ख़बरें आ रही है, जैसे तेल कंपनियों के बढ़ते घाटे को कम करने के लिए आयकर और कॉरपरेट करों पर एक उपकर यानी सेस लगा दिया जाए। लेकिन क्या सरकार ऐसा जोखिम लेगी। पहले ही फरवरी में सरकार ने तेल के दाम बढ़ाए थे, लेकिन काफी कम। पिछले 8 महीने में कच्चे तेल की कीमतें 64 से 130 डॉलर प्रति बैरल तक जा चुकी हैं। लेकिन हमारे यहां कीमतें बढ़ी सिर्फ 3 से 4 फीसदी तक। ये राजनीति ही है जिसने कीमतें बढ़ने नहीं दिया है। लेकिन बकरे की अम्मा कब तक खै़र मनायेगी यही देखना है। कहीं ऐसा ना हो कि अंत में तेल की फिसलन से न आम जनता बच पाए न ही सरकार।

मंगलवार, 27 मई 2008

कविता मत लिख चिरकुट

अनामदास की कविता

(अनामदास बित्ते भर के आदमी हैं। लेकिन इन्हें लघुमानव कतई नहीं कहा जा सकता । काम-धाम कुछ खास नहीं लेकिन शागिर्द लोग उस्ताद मानते हैं। वैसे तो मेरे अच्छे मित्र है लेकिन डंडा चलाने में पूरे समतावादी हैं। इसलिए मुझ पर भी नजरे इनायत हो गई । उस पर से धमकी कि ये फ़जिहत अपने ही ब्लॉग पर छापो वरना ....। भाई साहब भाषा में थोड़े भदेस हैं।इसलिए क्षमाभाव के साथ पढिए। )

धरती को कागज बना
सागर को स्याही
और लिख....लिख मार
जो भी दिल में आये
मेरे भाई।
वेदना में लिख
भावना में लिख
कभी क्षुब्ध हो जा
फिर उत्तेजना में लिख
तेरी विस्फोटक प्रतिभा
से आतंकित कर दे , समाज को
लिख दे कुछ भी रॉकेट छाप
मिला दे धरती आकाश
लोग कहें... छाती पर हाथ धर
वो मारा
भाई वाह, लिख दिया जहां सारा।
दांत किटकिटा
सिर के बल खड़ा हो जा
कलाबाजियां खाते- खाते लिखा कर
सरेआम मत बोल
बस वक्राकार हँस
बुद्घिजीवी दिखा कर
और कुछ भी लिखा कर

बेटे,आसाराम बन
रामचरित लिख
गुलशन को गुरू बना
कटी पतंग लिख
ब्लॉगर बन
पुण्यात्माओं की पूजा कर
खबरिया चैनल से रोटी जुगाड़ के
उनकी ही मां—बैन कर।
खबर की मौत हो
चाहे मौत की खबर
बेरहम और बाजारू
पत्रकारिता को लानत भेज
टेसू बहाया कर , नैतिकता पेला कर
जमी जमाई दूकान की मसलंद पर टिककर
निर्भय पादा कर ।
लेकिन,एक छोटी सी अरज है भाई
चाहे कुछ भी लिख- पोत
उखाड़-पछाड़
हमे कोई फर्क नहीं पड़ता मगर
सिर्फ लिखने के लिए
कविता मत लिख चिरकुट
हमारी जातीय संवेदना
सिहर जाती है।

शनिवार, 24 मई 2008

बेतुका सर्वे हैं बापू, सुभाष और भगत की तुलना....

वैसे तो इस तरह के सर्वे बड़े ही बेतुके किस्म के होते हैं कि कौन बड़ा है और कौन छोटा, ठीक उसी तरह जैसे माता और पिता में तुलना करने कह दिया जाए। लेकिन अगर मेरी व्यक्तिगत राय मानें तो गांधी का योगदान व्यापक और ठोस था। गांधी के आलोचकों का कहना है कि गांधीजी पूंजीवाद के समर्थक थे और उन्होनें कई दफा वर्णव्यवस्था को भी सही ठहराया था लेकिन उस समय की परिस्थितियों पर गौर करें तो आजादी के लिए जो भी उपलव्ध और सटीक तरीका हो सकता था, गांधी ने सबको अपनाया। जहां तक हथियार के बल पर आजादी की बात थी तो 1857 में यह प्रयोग बुरी तरह असफल हो चुका था..और लगभग यहीं हाल उसका (बहुत अनुकूल हालात होते हुए भी) सुभाष बाबू के अभियान में भी हुआ। क्रान्तिकारियों की छिटपुट लड़ाईयां सिवाय प्रेरणा देने के और कुछ नहीं कर रही थी और उसका कोई संगठित स्वरुप नहीं था। वो सिर्फ एक छोटे से पढ़े लिखे तबके तक सीमित थी। लोग कहते हैं कि अंग्रेजों ने 1947 में भारत को इसलिए आजादी दे दी कि उसे भारतीय सेना पर से यकीन उठ गया था। यह सुभाष बाबू के ही कारनामों का नतीजा था कि बंम्बई में 1946 में नौसेना विद्रोह हो गया..और अंग्रेजों को जल्दी ही भारत छोड़ने के लिए सोचना पड़ा। अंग्रेज और पश्चिमी ताकतें नहीं चाहती थी कि हिंदुस्तान में एक रिवोल्यूशनरी किस्म की सरकार बने जिसकी कमान एक व्यक्ति या सेना के हाथ में रहे। इसलिए सत्ता का हस्तांतरण जल्दवाजी में किया गया और कांग्रेस जैसी यथास्थितिवादी पार्टी के हाथों कमान सौप दी गई..जिससे व्यापक पश्चिमी हित और एक छोटे से एंग्लोइंडियन कुनबे पर कोई आंच न आए। अगर मान लिया जाए कि ये तमाम बातें सच भी हैं तो भी इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि कांग्रेस को आमलोगों की पार्टी बनाने और हिंदुस्तान जैसे अनिश्चित स्वभाव वालें मुल्क में गांधी ने एक ठोस और आमसहमति वाला लीडरशिप पेश किया। ये गांधी की ही शख्सियत थी जिसके बदौलत सरदार पटेल बिना खून खराबा कराए सैकड़ो रियासतों को हिंदुस्तान में समेट पाए। जिस काम को करने में यूरोपीय यूनियन अभी तक सफल नहीं हो पाया है..वो गांधी के चट्टानी व्यक्तित्व के बदौलत मिनटों में हो गया। ये गांधी ही थे जिन्होने अम्वेदकर के साथ बड़ी सूझ-बूझ से दलित समस्या का समाधान किया था। शायद उस हिसाब से हिंदू धर्म के प्रति उनका योगदान एतिहासिक है।

गांधी की सबसे बड़ी आलोचना क्या है?..मुसलमानों का तुष्टीकरण या पूंजीवादियों को प्रश्रय? क्या हिंदुस्तान जैसे मुल्क से सारे मुसलमानों को निकाल पाना संभव था। उस समय के हालात की कल्पना कीजिए...एक नदी-नाले, पहाड़ और घाटियों से अंटे पड़े मुल्क में जहां कोई कौंम पिछले हजार साल से रहती हो..जहां संचार के साधन बहुत ही कम थे..आप चुन-चुन कर कैसे तकरीबन 6 करोंड़ आदमी को बाहर फेंक सकते है?..कुछ हालात के बस और कुछ अपनी बेवकूफियों की वजह से जिन लोगों ने सरहद पार किया उनकी हालात आज भी किसी से छुपी नहीं है..?फिर हम ये उम्मीद करें कि गांधी ने उनके नरसंहार का फतवा क्यो नहीं दिया..?ये महज संयोंग नहीं है कि गांधी की आलोचना भी तभी से ज्यादा शुरु हुई है जब से मुल्क में एक खास तरह की विचारधारा ने जड़ जमाना शुरु किया है। दूसरी बात की जब से दलितों में चेतना आई है..अम्वेदकर की तारीफ मतलब, गांधी को गाली देना बन गया है। यह एक तरह से मौजूदा कांग्रेस पार्टी पर परोक्ष रुप से हमला भी है...क्योंकि इसी ने बड़े वाहियात तरीके से पिछले 60 सालों से ब्रांड गांधी को बेचा है। जहां तक पूंजीवादियों के समर्थन देने की बात हैं..गांधी जानते थे कि हजारों लेयर में बंटे इस देश की जमीन क्रान्ति के लिए उर्वर नहीं है..और आजादी के आंदोलन को चलाने के लिए एक असरदार मध्यमवर्ग को साथ में लेना जरुरी था। और सियासी गतिविधियों के लिए धन की भी आवश्यकता थी। और गांधी ने यहीं किया। सबसे बड़ी बात यह थी गांधी का उद्येश्य उस समय आजादी था..भावी सरकार का चरित्र नहीं। लेकिन बात करें सुभाष और भगत सिहं की..तो उन लोगों ने सत्ता हाथ में आने से पहले ही भावी प्रशासन का रुपरेखा दिमाग में बना ली थी..और जाहिरा तौर पर..वो समाजवादी माडल था। और इसी बात को लेकर आज के वामपंथी आज इतराते फिरते हैं कि सुभाष और भगत उनके विचारों के आदमी थे। लेकिन इन वामपंथियों से पूछा जाना चाहिए कि संघियों की तरह उस वक्त ये लोग आजादी की लड़ाई के लिए क्या कर रहे थे तो शायद इनके पास कहने के लिए कुछ भी न हों।
गांधी ने रणनीति के तहत चौराचौरी के वक्त आंदोलन को वापस ले लिया था। गांधी ने जब देखा कि आंदोलन अपनी धार खोता जा रहा है तो उन्होने अपनी उर्जा रचनात्मक कामों की तरफ मोड़ दिया। गांधी ने बड़े धैर्य से आंदोलन को धारदार बनाया था..और आधुनिक संचार के सारे साधनों का चतुराई से इस्तेमाल किया। अखवार, चिट्ठियां, भाषण, पर्चे सभी का इस्तेमाल गांधी ने किया। इस लेख का य़े मकसद नहीं कि भगत सिंह या सुभाष बाबू को कमतर आंका जाए..उनका योगदान था लेकिन वो सर्वांगीन नहीं था। गांधी या सुभाष की तुलना के लिए कोई भी लेख छोटा साबित हो सकता है..विशेषकर तब जब विश्लेषण के लिए आपने उस एतिहासिक पात्र को चुना हो जो संभवत पिछली सदीं में सबसे ज्यादा वार विश्लेषित किया गया हो। भगत सिंह का बेहतरीन आना बाकी था..वो बेवक्त दुनिया से चले गए..लेकिन अपनी कार्यशैली का संकेत तो वो छोड़ ही गए थे।सुभाष बाबू का बेहतरीन ये था कि उन्होने मुल्क की आजादी के लिए बुलंद हौसलों के साथ आरपार की एक प्रशंसनीय लड़ाई लड़ी.. लेकिन सवाल यह है कि अगर गांधी अगर सीन में न भी होते तो क्या सुभाष या भगतसिंह सिर्फ हथियारों के बल पर आजादी ले लेते... अगर हां तो क्या वो आजादी सबको समाहित करने वाली होती..यहीं वो सवाल है जो फिर से हमें गांधी की प्रसांगिकता की याद दिलाता है।

वाटर प्रुफ

शिखर

कभी- कभी लगता है
मेरी आँखे वाटर प्रुफ है
तभी तो बाहर का पानी बाहर
और भीतर की आर्द्रता
हमेशा भीतर गलती सडती है.....
सचमुच
वाटरप्रुफ चीजो के अन्दर
पानी ही नही
धूप का भी निषेध होता है
तभी तो भीतर की चीजे
सूख नही पाती
बल्कि सीलन समाते समाते
भरभराने लगती है
और फिर सुखने की तडप मे
शुष्क हो जाती है

बुधवार, 21 मई 2008

पायदान पर पिता

प्रभात रंजन
( संदर्भ -- हुआ यूं कि कुछ दिन पहले अनायास इंडिया टूडे के विशेषांक पर नजर पड़ गई । इसमें 60 महानतम भारतीयों का चयन है... (मापदंड का जिक्र नहीं )। इसमें दस लोगों की एक और सूची है जो इंटरनेट और दूसरे तरीकों से जनता की राय लेकर बनाई गई है । सबसे ज्यादा वोट भगतसिंह को मिले है और उसके बाद सुभाष चन्द्र बोस को। तीसरे पायदान पर महात्मा गांधी हैं ।)

उन दिनों तमाम दूसरी नई चीजों के अलावा गांधी जी पर बहस करना भी एक नया और अजीब शौक था । जिस मैदान में हम क्रिकेट खेलते थे ,उसके एक कोने में गांधी जी की एक प्रतिमा थी। और यह भी एक वजह थी कि रोज शाम में खेल चूकने के बाद मगज़मारी का जो सिलसिला शुरू होता था उसमें अक्सर गांधीजी ही छाये रहते थे । वैसे ये बहस क्लास रूम से लेकर सब्जी बाजार तक कहीं और कभी भी हो सकती थी .... बस दो- चार मित्रों की जरूरत होती थी । वैसे करने को तो और भी कई बातें थी , मसलन क्रिकेट या शहर में हुई कोई वारदात लेकिन जो उत्तेजना गांधी जी के मामले में होती थी , उसका कोई सानी नहीं था। गांधी जी के नाम पर जो बवाल होते थे उसकी तह में दो - तीन ही लोग थे। भगत सिंह , सुभाष और नेहरू। और कुल मिलाकर दो- चार बातें .... जो अहिंसा और गांधी जी के मुस्लिम प्रेम से जुड़ी थी । कभी-कभार बेतुकी और बेहुदा बातें भी इसमें शामिल हो जाती थी, लेकिन मोटे तौर पर यार लोग इतिहास के इर्द – गिर्द रहने का प्रयास करते थे । ये अलग बात है कि सुनी – सुनाई हमारी बातों में इतिहास, हमारी उम्र जितना ही होता था। आखिरी बात .... उन दिनों कभी ऐसा मौका नहीं आया जब भगत सिंह , सुभाष और नेहरू को लेकर गांधीजी ने भला बुरा नहीं सुना हो । यहां तक कि देश को तबाह ओ बरबाद करने का संगीन इल्जाम भी उनके ही मत्थे था । भगत सिंह और सुभाष की बात करते करते यार लोग इतने भावुक हो जाते कि एक चुप्पी सी पसर जाती और इस खालीपन में नाथुराम गोडसे की आत्मा गोते लगाने लगती थी।
खैर होंठो के ऊपर मूंछ का एहसास अभी ताजा था , और रगों में खून ने उबाल मारना तुरंत ही शुरू किया था । जो था ... लाजिमी था।
ये हाई स्कूल के दिन थे ।

फिर एक लम्बा अरसा गुजर गया। गुजरे सालों में देश बहुत बदला। इतिहास क्योंकि बदल नहीं सकता था , इसलिए बदला नहीं जा सका। गांधी जी बदस्तूर राष्ट्रपिता बने रहे और भगत सिंह शहीदेआजम । लेकिन एक चीज और नहीं बदली..... गांधी जी और भगत सिंह को लेकर हमारी किशोरवय सोच । हाई स्कूल के छात्रों की तरह आज भी गांधी जी के खिलाफ बोलना बौद्धिक दबंगई के लिए जरूरी है। दूसरी ओर दीवार पर क्रांति लिखने वालों की एक जमात आज भी भगत सिंह को झंडे की तरह उठाए हुए है। कोई इंटरनेट पोल के माध्यम से जानने का बचकाना प्रयास करता है कि गांधी बड़े या भगत- सुभाष । और लोग बेचारे ..... तीसरे पायदान पर फेंक देते है महात्मा को ।

यूं तो हम कई मसलों पर लगातार बहस में हैं..... जाति , धर्म , सांप्रदायिकता , शायर ,समाज और न जाने क्या – क्या । लेकिन गांधी जी पर भी गाहे बिगाहे एक गंभीर बहस की दरकार है ।
एक नई बहस इस लिए भी जरूरी है , क्योंकि अब हम हाई स्कूल में नहीं है।
आइए शुरू करें .....।

मंगलवार, 20 मई 2008

अब क्या करेगी सरकार ?

ओमप्रकाश

मुहावरा मुंह चिढ़ाने का सही उदाहरण शायद इससे बेहतर कोई नहीं हो सकता। महंगाई का आंकड़ा जैसे-जैसे ऊपर जा रहा है वैसे-वैसे हमारे महान अर्थशास्त्री चिदंबरम साहब और प्रधानमंत्री महोदय की फ़जीहत भी नए रिकॉर्ड बना रही है। आज मुद्रास्फीति 7.83 फीसदी तक जा पहुंची है, यानी 44 महीनों में सबसे ज्यादा। दावों पर दावे लेकिन मुद्रास्फीति 8 वें पायदान पर पहुंचने का बेताब सबको चिढ़ा रहा है। कर लो जो करना है। ये महंगाई ज्यादा ख़तरनाक दिखती है। इसलिए क्योंकि सरकार के पास करने को ज्यादा कुछ बचा नहीं है। पिछले दिनों ही रिज़र्व बैंक ने बाज़ार से पैसा हटाने के लिए अपने नगद आरक्षित अनुपात में 75 बेसिस अंक तक की बढ़त की। उम्मीद थी कि बाज़ार से 26 से 29 हज़ार करोड़ रुपयों तक की तरलता कम हो जाएगी। नतीजा लोगों के पास पैसे कम होगें तो, मांग कम होगी और महंगाई पर लगाम लगेगी। सरकार ने आपूर्ति ठीक करने के दावे किए लेकिन परिणाम दिखता नहीं। जानकार चेतावनी दे रहे हैं कि महंगाई का ये सूचकांक 8 फीसदी के ऊपर जाकर रहेगा।
सरकार की इन कोशिशों को धक्का रुपए की कमज़ोरी के कारण भी लगा है। पिछले साल जहां परेशानी इस बात की थी कि रुपया ज़रुरत से ज्यादा इठला रहा था तो इस बार मामला उलटा है। चिंता का कारण पेट्रोलियम के बढ़ते दाम भी हैं। वहीं, सरकारी पेट्रोलियम कंपनियां भी बाप-बाप कर रही हैं। रुपए के कमज़ोर होने से आयात महंगा हुआ है, जिसका सीधा असर पेट्रोलियम उत्पादों पर पड़ा है। लेकिन चुनावी साल में सरकार भी बेबस बनी काग़ज काले किए जा रही है। नतीजा, सब्सिडी का बोझ सरकार पर बढ़ता जा रहा है। लग रहा है कि ये सब्सिडी का बिल जीडीपी के 5 फीसदी तक जा सकती हैं। ऐसे में एक सवाल और कि सरकार के बजटिय घाटा का क्या होगा।
महंगाई के साथ साथ एक और बात के लिए तैयार रहिए। वो है तेज़ जीडीपी रफ़्तार आपको रेंगती नज़र आ सकती है।

शनिवार, 17 मई 2008

तेरी याद में

गोपी कृष्ण सहाय

चले गए तब ज्ञात हुआ , अपना खोना क्या होता है !
याद में तेरे साथी मेरे , घर आंगन भी रोता है !!
वही आंगन ढ़ूढते थे तुम , मै कहीँ छुप जाता था
कई सवाल पूछोगे ये , सोच नजर चुराता था !!
बड़े जटिल लगते थे , प्रश्न तेरे सीधे सादे !लौट के ना आओगे तुम , इस मन को समझाता हूँ !
पर तेरी यादों की दस्तक , हर कोने मे पाता हूँ !!
माना अब हमने तेरे बिन , मुस्कुराना सिख लिया !
वक्त के साथ अकेले ही , कदम मिलाना सिख लिया !!
अगले जनम तुमको इश्वर , फिर हमसे ही मिलवादे !

जीवन मृत्यु

आज मै चुपचाप बैठी सोच रही थी

अपने ही भावो मे कितनी उलरही थी

कि जिन्दगी और मौत कितनी करीब है

एक संसार मे लाती है तो दुसरी ले जाती है

लेकिन शमशान घाट पर ही

जाकर वैराग्य क्यो जागते .है

और मृत्यु पर ही सारे सगे सम्बन्धी ,

बिलख बिलख कर रोते क्यो है

शायद यहाँ हम एक पूरी जिन्दगी

का अन्त पाते है.

मरने वाले तो मर जाते है

पर कुछ लोग उनकी मृत्यु मे

अपना सारा जीवन तलाशते है(मेरी माँ)

शुक्रवार, 9 मई 2008

मासूम बुश और मुटाते हम

ओमप्रकाश
हम फिल्मों में काफी पहले से देखते आ रहे हैं कि जुड़वा भाईयों के बीच इतना प्यार होता है कि एक को मारे तो दूसरे को लगे। ऐसा ही कुछ रिश्ता हमारा अमेरिका के साथ हो गया है। खाएं हम पेट दरद हो उनका। अरे, अब ये दरद नहीं है तो और क्या है। बुश साहब कहते हैं कि पूरी दुनिया की महंगाई के लिए भारत का मध्य वर्ग ज़िम्मेवार है। 35 करोड़ का विशाल भारतीय मध्य वर्ग। महाशक्ति अमेरिका की पूरी आबादी से भी बड़ा। राष्ट्रपति महोदय का कहना है कि भारत का ये वर्ग खा खाकर मुटा रहा है। लेकिन अफसोस कि उनके ही इशारे पर चलने वाले संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े उन्हें झूठा साबित करते हैं। हमारे मासूम से बुश साहब को कोई बताए कि पिछले सालों में अमेरिका में अनाज की खपत 12 फीसदी की दर से बढ़ी है जबकि हमारे यहां सिर्फ 2.5 फीसदी। अरे, सिर्फ पिछले साल की बात करें तो अमेरिका में अनाज की खपत 31 करोड़ टन से भी ज्यादा रही तो वहीं, भारत में 20 करोड़ टन से भी कम। अब क्या बताए बेचारे बुश पूरी दूनिया की फिकर उन्हें इतना सताती है कि इन छोटी मोटी बातों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जा पाता।
हां, बुश महाश्य को ये भी बता दें कि खु़द उनके ही देश में मक्का को बड़े पैमाने पर जैव-ईंधन के लिय इस्तेमाल किया जा रहा है। साथ ही जानकार बताते हैं कि 2010 तक अमेरिका में 30 फीसदी मक्का का इस्तेमाल एथेनॉल बनाने के लिए होगा। लेकिन अब ये तय करना होगा कि पूरी दुनिया के 80 करोड़ कार मालिकों के लिए ईंधन तैयार करने में अनाज का लगाना है या भूखमरी के शिकार 1.5 अरब लोगों का पेट भरना।

गुरुवार, 1 मई 2008

मल्ल युद्ध

मनोज भाई को बतकही के दौरान सुनना एक शानदार अनुभव है लेकिन पढ़ना तो बस कमाल है । तलवार की नोक से गुदगुदाने की कला जानते है, बशर्ते सुनने वाला लापरवाह न हो।
मनोज मेहता आजकल इंडिया न्यूज में विशेष संवाददाता हैं। अपने संकलन से एक कविता हलफ़नामा के तौर पर भेजी है।

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ताल ठोकते
आमने सामने दो वीर
नगाड़े - ढोलक
चीख – पुकार
उमड़ता हुआ पूरा गांव
मिट्टी और पसीने का
मुंह में फैला – एक सा स्वाद
अवसर फिसलने की निराशा
दबोच लेने के
तमाम पैंतरों के बीच
जरूरी नहीं है यह जिक्र
कि इनके पास होता था
हजार – हजार हाथियों का बल
ये राजा होते थे
सेनापति होते थे
और हस्तिनापुर , मगध , काशी
हर जगह पाये जाते थे
ये पी जाते थे
दसियों मन दूध
सेरो घी
लगाते थे
कई – कई योजन का चक्कर
हजारों बैठकें
और ललकार भर देने से
मच जाता था घमासान
जूझते थे हफ्तों – अथक

अब कोई वैसे ललकारे
तो हंसी होगी उसकी
रणनीतिक भूल
कि न्यूज चैनलों के हित ही
अब लड़े जाते हैं युद्ध
कि जब तक वह कसेगा अपनी लंगोट
तब तक खुल जाएगा
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का पिटारा
और उसके मसखरे
निकल कर टहलने लगेंगे
वायरस की तरह
लोगों के दिमाग में
कि गिर जाएगा
शेयर बाजार का पहाड़ उसकी पीठ पर
और वह मन ही मन
पूजता रह जाएगा
महावीर जी को

मौका ऐसे ही किसी कारण
चूक जाएगा कोई एक
और दूसरा
धम्म से जा बैठेगा
उसकी छाती पर
उमेठने लगेगा उसकी गर्दन

शोर का एक बवंडर उठेगा
थकान , प्यास
ऐंठती हुई अंतड़ियों
और पसीने से लिथड़ा
अखाड़े की छाती से उठ कर
वह दौड़ने लगेगा
चक्राकार
ढोल – नगाड़े
बरसते हुए पैसों
और जयकार के बीच
एक हाथ में
प्रतिरोध का
पूर्व पाषाणयुगीन विकल्प लिए।

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

एक गैर–राजनीतिक कदम

इस मुलाकात से भले ही इतिहास नहीं बदला जा सकता लेकिन, इंसानियत का चेहरा कुछ निखर सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बेटी जेल में अपने पिता के कातिल , नलिनी श्रीहरन से मिली । नलिनी से प्रियंका की इस मुलाकात ने , किसी मसले को हल नहीं किया लेकिन गुस्से और तकलीफ से आहत दिलों को आराम जरूर देगी । प्रियंका ने कई सवाल पूछे – ऐसे कई सवाल जिनके जवाबों की दरकार नहीं थी लेकिन शायद चुप्पी तोड़ने का कोई और रास्ता नहीं रहा हो। प्रियंका 17 साल पुरानी अपनी लड़ाई को खत्म करने का इससे बेहतर जरिया नहीं तलाश सकती थी । और नलिनी पश्चताप का इससे बेहतर मौका। कानून ने तो सिर्फ अपराध की सजा दी लेकिन प्रियंका ने नलिनी की आत्मा पर लगे दागों को कुछ हल्का करने का प्रयास किया है । सार्वजनिक या राजनीतिक तमाशे से दूर प्रियंका ने अपने पिता के कातिल से कहा कि वे एक अच्छे इंसान थे और नलिनी ने बताया कि अनाथ होने के कारण उसने कभी प्यार नहीं पाया । और शायद इसी लिए थोड़ी सी सहानुभूति दिखा कर उसे राजीव हत्याकांड में शामिल कर लिया गया । हांलाकि उसे इन सबके पिछे मौजूद असली चेहरे का पता नहीं है। अब शायद इतना कह भर देने से नलिनी के लिए सांस लेना कुछ आसान हो जाए। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या वाकई नलिनी को कुछ पता नहीं है और क्या प्रियंका भावनाओं की आड़ में अपने पिता की हत्या में शामिल ऐसे लोगों की पहचान करने गई थी , जो अब तक बेनकाब है।
प्रियंका का चाहे जो भी मतलब हो -- ये मुलाकात नलिनी के लिए काफी मायने रखती है।

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

सहयात्री

बर्दाश्त करना है
क्योंकि नांव छोड़ी नहीं जा सकती
नदी के बीचो – बीच।
नांव पर सवार
आकाश की ओर मुंह उठाये
रेकियाते/जैसे ईश्वर को गरियाते
सहयात्री, इन गदहों को (गधों को)
पार उतरने तक बर्दाश्त करना है
चोट सहना भी विवशता
चुपचाप
कौन सिर्फ प्रतिशोध के लिए मारेगा दुलत्ती
किसी गदहे को।

गुरुवार, 3 अप्रैल 2008

मेरा होना ----

कुछ कहने की अकुलाहट और चुप रहने की बेबसी के बीच में . एक शाम है . घर की ओझल दीवार में कहीं दहलीज की तरह. और एक मैं हूं.
मैं भी हूं. बने रहने की जरूरत और खत्म होने की बैचेनी के साथ. जैसे ये शहर है . होने और ना होने की पूरी सार्थकता के साथ .
पेड़ की फूनगियों पर रहेगी धूप . आखिर तक . कि जैसे आंखों में रहती हैं उम्मीद. और कभी सर्दियों मे कीचड़ . आखिरकार पोंछ दिए जाने तक . मैं भी रहूंगा .
मेरा होना ठीक वैसे नहीं कि, जैसे पिछली सदी की आखिरी कविता में मौजूद था एक आदमी. प्रेमिकाओं के पहने हुए गहने की तरह मेरा मूल्य है. सुखद स्मृतियॉ नहीं . बेहद तकलीफ में याद किए जाने वाले गुनाहों की तरह, क्षमा – प्रार्थनाओं में रहता हूं.
मेरा होना , भाषा में गाली होने की तरह अनिवार्य . मगर अवांछित.
मैं हूं - किसी ढ़ही हुई इमारत की कीमती जमीन की तरह .

गुरुवार, 27 मार्च 2008

दसबजिया फूल

एक शहर,
जो सीवान था
आज भी मेरी स्मृतियों में
खिलता है
दसबजिया फूल की तरह ।

गाहे-बगाहे लोग पूछ ही लेते है कि भई कहां से हैं आप । सोंचता हूं कि बात शायद मेरे प्रांत तक जाते जाते रूक जायेगी लेकिन कई दफा परिचय के ढलान पर फिसल भी जाती है ,और मेरे शहर के मोड़ पर आ रूकती है। सीवान का जिक्र आते ही सामने वाला एक अजीब सी हंसी हंसता है जिसमें ये भाव होता है कि अच्छा आप भी ........... । शहाबुद्दीन ने मेरे शहर को भारत के नक्शे पर अलग से चस्पा करने का जो प्रयास किया है उसके लिए कई पीढियां उनकी शुक्रगुजार रहेंगी। समय के तेज धारा में, राजेन्द्र बाबू का नाम कहीं गुम गया । अच्छा हुआ , क्योंकि अच्छे परिवार के बिगड़ी औलाद की कैफियत देने से छूट मिल गई। बाकि - वहीं ठसक , वैसा ही अन्दाज ---- आरा , बलिया के साथ सारण की त्रिमूर्ती का जिक्र आज भी आजादी की लोककथाओं में होता है । विरोध के तीखे तेवर इस मिट्टी की खुबी है । शहाबुद्दीन के बरअक्स चन्द्रशेखर कि जैसे तोप के मुकाबिल छाती । अब है, तो है।