ओमप्रकाश
सब सांस रोके इंतज़ार कर रहे हैं कि पेट्रोल-डीज़ल के दाम आज बढ़े कि कल । बढ़ेगें तो ज़रुर। एक कमाल की बात है। एक तरफ सरकार और सरकारी तेल कंपनियां इस बात पर माथा खपा रही हैं कि बढ़ते पेट्रोलियम सब्सिडी से कैसे छुटकारा मिले। क्योंकि, चालू वित्तिय साल में ये सब्सिडी 2 लाख करोड़ के पार जा सकती है। ये राशि इतनी है कि भारत निर्माण और राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना की पूरी राशि भी बौनी साबित हो जाए। सरकारी तेल कंपनियों को हर दिन 600 करोड़ का नुकसान हो रहा है। लेकिन राजनीति ने पांव जकड़ रखे हैं। भाई, तेल के दाम कौन बढ़ाना चाहेगा, वो भी चुनावी बेला में। लेकिन मज़े की बात कि सरकार अपने राजस्व में कोई कमी करने को तैयार नहीं है। एक लीटर पेट्रोल या डीज़ल पर जो पैसे हम चुका रहे हैं, उसका लगभग 50 फीसदी सरकारों के पास कमाई के रुप में जाता है और 50 फीसदी सरकारी तेल कंपनियों के पास।
आज देश में कच्चे तेल के आने के बाद हमारी सरकारें कुल चार तरह के कर आम जनता से वसूलती है। आज भी जब महंगाई 8 फीसदी के आसपास मंडरा रही है, तब भी इन करों में कोई राहत नहीं है। चाहे आयात कर हो या सीमा शुल्क, उत्पाद शल्क हो या राज्यों के बिक्री कर। आज हमारे देश में पेट्रोलियम उत्पादों पर 32 फीसदी से ज्यादा उत्पाद शल्क वसूला जा रहा है, जबकि चीन में ये मात्र 5 फीसदी है तो पाकिस्तान में सिर्फ 2 फीसदी। इस बीच कई ख़बरें आ रही है, जैसे तेल कंपनियों के बढ़ते घाटे को कम करने के लिए आयकर और कॉरपरेट करों पर एक उपकर यानी सेस लगा दिया जाए। लेकिन क्या सरकार ऐसा जोखिम लेगी। पहले ही फरवरी में सरकार ने तेल के दाम बढ़ाए थे, लेकिन काफी कम। पिछले 8 महीने में कच्चे तेल की कीमतें 64 से 130 डॉलर प्रति बैरल तक जा चुकी हैं। लेकिन हमारे यहां कीमतें बढ़ी सिर्फ 3 से 4 फीसदी तक। ये राजनीति ही है जिसने कीमतें बढ़ने नहीं दिया है। लेकिन बकरे की अम्मा कब तक खै़र मनायेगी यही देखना है। कहीं ऐसा ना हो कि अंत में तेल की फिसलन से न आम जनता बच पाए न ही सरकार।
गुरुवार, 29 मई 2008
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