सोमवार, 14 जून 2010

दुबे जी का जागरण

प्रभात रंजन
पिछली सर्दियों में अनायास दुबे जी से मुलाकात हुई । एक राष्ट्रीय अखबार में दुबे जी पत्रकार हैं और बड़े पद पर हैं । खैर, तब मेरे लिए बेरोजगारी का दौर था और मैं एक पुराने दोस्त से मिलने अखबार के ऑफिस गया था । बात ही बात में पता चला कि अगर दुबे जी प्रसन्न हो गए तो मुझे इस अखबार में नौकरी मिल सकती है । मेरे मित्र ने मुझे बगैर किसी सूचना या सावधानी के दुबे जी के सामने छोड़ दिया। दुबे जी का अद्वितीय पत्रकार व्यक्तित्व मुझे भयक्रांत करने के लिए काफी था । चेहरे पर पनपी हुई समाजवादी खिचड़ी दाढ़ी, सिर पर बेतरतीब बिखरे हुए क्रांतिकारी केश , ऐनक के पीछे से घूरती हुईं एक्सरे जैसी आंखे और पान की पीक से फुलाए अपने पिचके हुए गाल। रीतिकाल के कवि बिहारी होते तो कहते - भले बने हो नाथ ।  कृशकाय शरीर पर उनके कपड़े पहनने का अंदाज बता रहा था कि दुबे जी को पैंट- शर्ट जैसी आधुनिक पोशाक से कोई लगावट नहीं। खैर, दुबे जी ने मुझे हिकारत से और मैनें दुबे जी को बड़ी हैरत से देखा। दुबे जी ने पूछा- “कहां काम करते थे”
मैनें कहा –' इलेक्ट्रॉनिक में था सर'
दुबे जी मुझे दोबारा ऊपर से नीचे तक देखा । फिर पूछा - “अब अखबार में क्यों”
असली बात छुपाकर मैने कहा – 'सर वहां शोर बहुत है और काम कम'
“लेकिन यहां दाम कम है भाई” – दुख और व्यंग्य को फेटकर दुबे जी ने कहा । कुछ काम और बेकाम के सवाल पूछकर दुबे जी ने मेरे हाथ में एक खबर पकड़ाई और कहा – “बन्धुवर इस खबर पर जरा स्क्रीप्ट लिख दें”
खबर पंजाब के एक गांव की थी- एक गधा अपनी मेहनत से मालिक के खेतों को आबाद करता है और मालिक का परिवार एक साल से बड़ी खुशहाल जिन्दगी गुजार रहा है ।
गधे और उसकी बेचारगी को किसान की चालाकी से जोड़कर मुझ गरीब ने  एक स्क्रीप्ट लिख मारी। लेकिन हल खींचते गधे का बिम्ब हास्य से इतना भरपूर था कि भाषा जरा मजाकिया हो गयी । और यही बात दुबे जी को अखर गई।
“अरे ये बड़ा संवेदनशील मुद्दा है भाई...गधे की मेहनत को आप मजाक समझते हैं...आपको इस देश के सिस्टम और सरकार पर लिखना चाहिए...आखिर सरकार की नजर गधों की दुर्दशा पर क्यों नहीं जाती...आपने उसकी कर्मठता पर ध्यान दिए बगैर उसकी दशा पर व्यंग्य लिख दिया है...कमाल करते हैं आप..."
भावावेश में दुबे जी और न जाने क्या बोलते, लेकिन मुंह के पान ने ज्यादा बोलने नहीं दिया । दो-चार बार मुंह दाएं-बाएं हिलाकर दुबे जी ने कहा – "नहीं चलेगा भाई। टीभी ने भाषा- विचार, खबर की समझ , सबका बंटाधार कर दिया है । जाइये भाई अखबार आपके बस का नहीं”-
इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता दुबे जी पान थूकने के लिए उठ गए और फिर देर तक नहीं दिखे। अपनी पढ़ाई - लिखाई को लानत देते हुए मैनें भी अखबार के ऑफिस को प्रणाम किया। साथ ही तीसरी कसम के हीरामन की तरह पहली कसम खायी- आज के बाद किसी भी गधे को लेकर मजाक नहीं करूंगा ।

खैर कुछ दिन पहले दुबे जी से दूसरी बार मुलाकात हो गयी । इसबार एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल में। दुबे जी बड़े ही गर्मजोशी से मिले । मैनें पूछा – सर आप यहां ?
“हां न्यूज हेड से मुलाकात करने आया था...दरअसल एक तरह से इंटरव्यू है...सर ने भरोसा दिया है कि इस बार कुछ करेंगे...लगता है आप भी नौकरी के लिए आएं हैं”- दुबे जी बोले ।
मैने कहा- “मेरी बात जाने दीजिए, आप कैसे टीभी में काम करेंगे...यहां तो खटारा लोग काम करते हैं”
दुबे जी बोले –“आपकी बात ठीक है , लेकिन क्या करें भाई...जरूरत इतनी है और उतने पैसे से काम नहीं चलता...आपकी भाभीजी ने जीना दुभर कर रखा है...समझ लीजिए कि बड़ी दिक्कत है ...और इसमें क्या है...जैसी ठसक के साथ प्रिंट में काम किया,वैसे ही इलेक्ट्रॉनिक को भी हांक ले चलेंगे...बल्कि हमारे जैसे लोगों के आने से आपलोगों की भाषा-वाषा ठीक हो जायेंगी...हें-हें-हें...और रही बात खबर की तो वो दोनों जगह से नदारद है-क्या हिन्दी के अखबार और क्या हिन्दी के चैनल...अब तो कमाना- खाना है”
मैनें मन ही मन दुबे जी प्रणाम किया। उनके जागरण पर शुभकामनाएं दी और मिलते रहने का वादा करके अपनी राह पकड़ी।

बुधवार, 19 मई 2010

पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

जैसा कि हम जानते हैं, हमारे देश में गृह-मंत्रालय भी है। मंत्रालय है तो मंत्री हैं। मंत्री काबिल हैं और कमाल के हैं लेकिन परेशान हैं । उनकी बात किसी के समझ में नहीं आती। आम आदमी तो खैर उनकी जबान क्या समझेगा, चिदंबरम भद्र राजनेताओं के भी पल्ले नहीं पड़ते। इधर राजनीति में जुमलेबाजी का दौर है । एक जुमला चिदंबरम पहले ही मार चुके हैं – बक स्टॉप विद...। अब कहते हैं कि उनके पास नक्सलवाद से लड़ने के लिए पर्याप्त मैंडेट नहीं है । जाहिर है एक बार फिर आम आदमी के समझ में ये मुहावरा भी नहीं आने वाला है। लेकिन अरुण जेटली ने फटाफट समझ लिया। समझ लिया इसलिए देर न करते हुए, चिदंबरम पर एक जबरदस्त जुमले से वार किया । घायल शहीद। चिदंबरम चारो खाने चित्त । कहते रहे कि इन शब्दों का चयन बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है । अब गृहमंत्री को कौन समझाये कि बक स्टॉप विद चीफ मिनिस्टर वाला जुमला भी दुर्भाग्यपूर्ण था । देखा जाए तो सारा दोष भाषा और मुहावरों का है । कुछ दिन पहले जब शशी थरूर ने कैटल क्लास वाला जुमला इस्तेमाल किया था तो कढ़ी में उबाल आ गया था ( क्या मुहावरा है )। इधर संसद में मणिशंकर ने जुमले के तौर पर जेटली को जब फासिस्ट कहा तो राज्यसभा में बवाल हो गया । ये तो फिर भी अंग्रेजी के जुमले हैं, ज्यादातर लोगों के अर्थ समझते समझते असर खो देते हैं । हिन्दी के मुहावरों का क्या असर होता है , ये कोई लालू और मुलायम से पूछे । गडकरी ने मातृभाषा के एक मुहावरे में दोनों को कुत्ते की तरह तलवे चाटने वाला कहा । हंगामा होना ही था ,और खुब हुआ। कुत्ते का जातीय चरित्र ही ऐसा है, वरना किसी को शेर कहने पर वो कतई बुरा हीं मानता । मुहावरे में शेर को जानवर नहीं मानते, लेकिन कुत्ता फिर भी कुत्ता ही बना रहता है। बेचारा । फिलहाल देश की राजनीति ऐसे ही जुमलों के सहारे चलती लगती है । गृहमंत्री शायद नक्सलियों के खिलाफ एयर फोर्स के बारे में सोच रहे हैं लेकिन दिग्विजय सिंह इस बात से घोर असहमत हैं । दिग्गी राजा फरमाते हैं कि सुरक्षा बलों को उतारने के लिए हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन एयर फोर्स का नहीं । ये जुमला नहीं है और राजनीति भी नहीं इसलिए हमारे किसी काम की नहीं । जुमला तो कांग्रेस के केशव राव ने मारा है--नक्सलियों के मामलें में पहले विकास फिर बात और आखिर में कार्रवाई । सर जी जुमला तो बड़ा जबरदस्त है लेकिन काफी पुराना है। गृहमंत्री के ग्रीन हंट जुमले की टक्कर में कहीं नहीं टिकता । खैर संजीदा मसलों पर नेताओं की जुमलेबाजी तो हम देख सुन रहे हैं, लेकिन अहम सवाल अपनी जगह है। मुक्तिबोध की शैली में हमें भी पूछना है , पार्टनर मुहावरे को जाने दो तेल लेने तुम बताओ तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

शुक्रवार, 14 मई 2010

जलेबी का समाजवाद

मेरे जीवन में एक ऐसा वक्त आ गया है
जब खोने को
कुछ भी नहीं है मेरे पास
दिन, दोस्ती, रवैया
राजनीति
गपशप, घास
और स्त्री हालॉकि वह बैठी हुई है
मेरे पास... ( श्रीकांत वर्मा )
...मैं भी कह सकता हूं यह बात । अव्वल तो कई चीजे कभी हासिल नहीं हुई। कुछ मिलने के बाद खो गईं । फिर भी, जो शेष है उससे आसक्त नहीं हूं । सिवाय जलेबी के । जलेबी के साथ रोमांस बचपन में शुरू हुआ । जवानी तक चला आया है । मां मीठा कम खाने की हिदायत देती रहती हैं, लेकिन कमबख्त जलेबी से नजर आज भी नहीं चुरा पाता । हफ्ते में कम से कम दो बार चख लेता हूं । दिल्ली के मुखर्जी नगर इलाके में जहां रहता हूं , वही गली के मोड़ पर जलेबी की एक दुकान है । माफ कीजिए , मुझे सच बोलना चाहिए । एक जलेबी बनाने वाले का ठेला है । दिन ढ़लने से पहले यूपी के गोरखपूर का रहने वाला श्याम अपनी दुकान ( ठेला ) सजा लेता है । मैदा के घोल वाले बड़े कनस्तर, एक कम गहराई वाली कड़ाही, चिमटे – चुल्हा और एक छोटू । काम की तलाश में गांव से श्याम के साथ ही चला आया है छोटू । दुकान लगने की देर भर होती है कि देखते- देखते ग्राहक ठेले पर टूट पड़ते हैं । ग्राहक यानि मुखर्जी नगर में रहने वाले प्रवासी छात्र और छात्राएं— इनमें से कई कल के बड़े आईएएस अधिकारी हैं । दुकान पर विधार्थियों की तादाद ज्यादा होती है क्योंकि आर्थिक पैमाने पर जलेबी उनकी जेब को भी पसंद आती है । पांच रुपए की जलेबी में स्वाद भी आ जाता है, शाम भी कट जाती है । एक तबका और है रिक्शा चालकों का और आसपास मजदुरी करने वालों का । दिन भर की मेहनत के बाद सुस्ताने के नाम पर ठंढा पानी पीने के लिए , मीठी जलेबी बड़ी कारगर होती है । रस में डूबी हुईं, गरम-गरम करारी जलेबियां जो सुख देती है , उसे थके हुए चेहरों पर देखा जा सकता है, बयान नहीं किया जा सकता । इस तरह महानगर में आए दूर कस्बे - देहात के नौजवान हों या मजदुर , जलेबी दोनो को बेहद पसंद है । श्याम के ठेले पर कार से उतर कर जलेबी लेने वाले भी अच्छी तादाद में आते हैं और मम्मियों का हाथ पकड़े छोटे बच्चे भी । सभी एक दुसरे के बगल में खड़े होकर मजे से जलेबियां खाते हैं। पढ़ी लिखी नौजवान पीढ़ी को किसी रिक्शेवाले के बगल में खड़ा होकर जलेबी खाने में कोई गुरेज नहीं होता । कार वालों को मजदुरों से घिन नहीं आती। । देश की सबसे सस्ती मिठाई, अपनी चासनी में सबको एक साथ डूबा लेती है । महानगर में गली- गली मिठाई की ब्रांड दुकाने हैं ,लेकिन क्या ऐसा नजारा वहां मुमकिन है? अगर देखा जाए तो मुखर्जी नगर ही क्यों , कहीं भी जलेबी का ठेला समाजवाद का अनोखा प्रतीक है । एक स्वाद जो सबके लिए है और सबको मयस्सर है ।
और आखिर में फैज साहब का एक शेर –
आस उस दर से टूटती नहीं
जाके देखा,न जाके देख लिया

गुरुवार, 6 मई 2010

धंधे का मास्टर स्ट्रोक

 प्रभात रंजन
गरीबी का अपना एक अलग सौन्दर्य होता है- ऐसा सुना है । आजकल देख रहा हूं । सौन्दर्य भी ऐसा कि कलेजा मुंह को आता है और हाथ हड़बड़ाहट में कलेजे तक जाता है। पूरा मोहल्ला उसे देखने की बाट जोहता रहता है। दिख जाए तो आफत ना दिखे तो आफत । बस यूं समझें कि "कमबख्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह" - जैसी पोज में मोहल्ला पलक- पावड़े बिछाए रहता है ।
अब आगे की कहानी फ्लैश बैक में.....
महीने भर पहले हमारी गली के आखिरी मकान के आगे, कपड़े आयरन करने की एक दुकान खुली।मोहल्ले में पहले से एक दुकान थी । इकलौती दुकान धड़ल्ले से चलती थी। नई दुकान खुलने का बाद भी पुरानी पर कोई असर नहीं पड़ा क्योंकि लोगों को उसकी आदत पड़ चुकी थी । कपड़े धुलते रहे , पुरानी दुकान पर आयरन होते रहे और नई दुकान पर मक्खियां उड़ती रहीं । कई दिनों तक । लेकिन बेहद गर्मी के बाद जैसे बारिश के आने से मौसम बदल जाता है , हमारे मोहल्ले की फिजा भी बदली । एक दिन सुबह – सुबह ही कुछ जगे कुछ सोये लोगों की कान में एक मधुर आवाज पड़ी। आयरन के लिए कपड़े दे दो भैया....बाऊजी...अम्मा...भाभी...कपड़े दे दो । मोहल्ला एक झटके से निंद से जागा । आंखे खोलकर उसे देखा और बस देखता रह गया । कमर कुछ ज्यादा ही मटकाते और एड़ियों से धूप उड़ाते, उसने पल भर में पूरे मोहल्ले का मुआयना कर लिया। नई भाभियों के दिल में तलवार की तरह धंसी तो पुराने भाईयों के दिल में उतर गई । तुरंत ही पता चल गया कि मोहतरमा आयरन करने वाली नई दुकान की मालकिन हैं । और ये भी कि आइन्दा दुकान इनकी देख रेख में ही चलेगी । इस सूचना को मोहल्ले ने खुले दिल से स्वीकार किया । कपड़ो के गठ्ठर ने अपना रास्ता बदल लिया। मैडम की तिरछी नजर जिस पर भी पड़ी- भाई, अंकल या बाऊजी -वो उनका स्थायी कंज्यूमर हो गया। अब धुले कपड़ो के लेन देन में अदाओं का कारोबार चलता है । नई दुकान खूब चलती है। पुरानी शायद जल्दी ही बंद हो जाएगी। कहना होगा कि बिजनेस का ये मास्टर स्ट्रोक है , जिसका इस्तेमाल अभी तक बहुराष्ट्रीय कंपनियां और बड़ी दुकान वाले करते थे। छोटे कारोबारियों को भी इसकी समझ हो रही है । बहरहाल तमाशा है , मजा लीजिए। अचानक ,बेवजह कुछ भी नहीं होता  ( अचानक सिर्फ फूल खिलते हैं और बेवजह सिर्फ गधे दुलत्ती मारते हैं )। मुद्दे की बात -  धंधे के लिए मार्केटिंग की समझ हो तो  नई दुकान भी झट से चल पड़ती है । और जैसा कि चचा गालिब भी कह गए हैं,  शाह का मुसाहिब होना खराब बात नहीं होती। ये कला आती हो तो आपका खोटा सिक्का भी खन- खन करता है ।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

तुझमें कोई कमी नहीं पाते

फिराक गोरखपुरी की गजल

बन्दगी से कभी नहीं मिलती
इस तरह ज़िन्दगी नहीं मिलती

लेने से ताज़ो-तख़्त मिलता है
मांगे से भीख भी नहीं मिलती

एक दुनिया है मेरी नज़रों में
पर वो दुनिया अभी नहीं मिलती

जब तक ऊँची न हो जमीर की लौ
आँख को रौशनी नहीं मिलती

तुझमें कोई कमी नहीं पाते
तुझमें कोई कमी नहीं मिलती

यूँ तो मिलने को मिल गया है ख़ुदा
पर तेरी दोस्ती नहीं मिलती

बस वो भरपूर जिन्दगी है ’फ़िराक़’
जिसमें आसूदगी नहीं मिलती

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

उफ ये तेरी हठधर्मिता

आजकल विनोद जी को पढ़ रहा हूं । खिलेगा तो देखेंगे । मौजूदा दौर में अपनी भाषा की ताकत का एक उदाहरण राग दरबारी है।अरूण कमल जी की पंक्तियां याद आ रही है कि भाषा की सभी हड्डियां चटका के शुक्ल जी ने रागदरबारी की भाषा का ईजाद किया है । यकीनन रागदरबारी अपनी भाषायी उपलब्धियों में बेजोड़ है। लेकिन विनोद जी के यहां मुहावरे पर जोर नहीं है,जोर है बिम्ब पर । गध में कविता जैसे बिम्बों की रचना विनोद जी की अपनी खासियत है । इससे पहले 'दीवार में खिड़की'को पढ़ते हुए भी अपनी भाषा की अनदेखी खूबसूरती मुग्ध कर गई थी। विनोद जी निश्चित रूप से प्रेमचंद की उस परंपरा के हिस्से हैं जिसमें सीधी- सादी सरल भाषा के माध्यम से जादू जगाने का काम किया जाता है । तत्सम और सामासिक शब्दों के बजाय ठेठ गंवारी बोली से सृजनात्मकता कैसे होती है , ये नागार्जुन के यहां भी देखा जा सकता है और त्रिलोचन के यहां भी। नामवर सिंह की एक बात याद आती है कि जनकवियों की कविताएं देखने में बड़ी सहज और आसान लगती है लेकिन अगर लिखने चलिए तो आटे दाल का भाव पता चल जाता है । खैर भाषा को लेकर बात इसलिए छेड़ी है कि, मैं जिस पेशे में हूं वहां भी भाषा को लेकर बड़े बवाल हैं । हुआ यूं कि कल एक स्क्रीप्ट पर नजर पड़ी जिसमें 'हठधर्मिता' जैसे शब्दों का सयास इस्तेमाल किया गया था । बाद में पता चला कि लिखने वाले सज्जन अब तक प्रिंट मीडिया से ताल्लुक रखते थे और अभी अभी इलेक्ट्रानिक मीडिया की गलीज दूनिया में कदम रखा है । बड़े पद पर हैं और रसूख रखते हैं । मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर उनका, उनकी हठधर्मिता की ओर ध्यान दिलाया जाए तो उनका कहर टीवी की वाहियात भाषा पर टूट पड़ेगा । शायद कह दें कि हम टीवी वालों को भाषा आती ही नहीं । असल, सवाल ये है कि प्रिंट में भी ऐसे शब्दों के इस्तेमाल का क्या तुक है जबकि पत्रकारिता के ककहरे में ये बात समझाई जाती है कि भाषा आसान और पंक्तियां छोटी होनी चाहिए । देश के सभी बड़े पत्रकार , चाहे प्रिंट के हो या टीवी के , सहज-सरल भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं । संप्रेषण में सुविधा होती है । और जहां तक बात है विद्वान टाइप लोगों की तो , मैं फिर से नामवर जी की पंक्तियां दुहराना चाहूंगा कि पहले आसान भाषा में लिख कर दिखाइए- आटे दाल का भाव पता चल जायेगा । एक बात और , अच्छा लिखने के नाम पर तत्सम शब्द और संयुक्त वाक्यों का इस्तेमाल करने वाले लोगो की जमात अकेली नहीं है । एक और जमात है , खासकर के टीवी की दूनिया में, जो सयास उर्दू के कठिन अल्फाजों का इस्तेमाल करती है । इनका भी मानना है कि फकत उर्दू के इस्तेमाल से स्क्रीप्ट जबरदस्त हो जाती है । भले ही उसके मायने न लिखने वाले के समझ में आए और ना सुनने वाले के । भाई लोग साठ सत्तर की हिन्दी फिल्मों की तरह उर्दू को टीवी के लिए बड़ी जरूरी चीज समझते हैं । और लिखते जा रहे हैं । दोनो जमातों को नसीहत देने का मेरा कोई इरादा नहीं ।आसान भाषा में गंभीर बात कहने की ,या कह सकने की कला अगर वाकई सिखनी हो तो हरिशंकर परसाई को पढने की नसीहत जरूर दूंगा ।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

तेरा जाना दिल के अरमानों का लूट जाना

भैया जी का इरादा खराब नहीं था । बस बात इतनी है कि निशाने पर आ गए । राजनीति के शिवपालगंज में थरूर भैया की एंट्री रंगनाथ की तरह हुई । तौर तरीकों में विदेशी थरूर भैया देसी माहौल में खप पाते , इससे पहले ही खपा दिए गए । क्या करें, इतने कम दिनों में गंजहापन सिखना भी आसान नहीं था । खैर ये बात तो सरेआम खुद थरूर साहब ने भी मानी है कि राजनीति में नौसिखुआ होने का खामियाजा उन्हे भुगतना पड़ा है । लेकिन भैया जी ने गलतियां भी कम नहीं की । कैटल क्लास के बवाल पर ‘बाल बाल बचे’ की चेतावनी को थरूर ने गंभीरता से लिया नहीं । और विदेश मंत्रालय की फाइलें निपटाते निपटाते क्रिकेट में उलझ गए । आईपीएल की कोच्चि टीम से थरूर का लगाव जायज है और किसी को इस पर भला क्या ऐतराज हो सकता है । शरद पवार या अरूण जेटली पर तो कभी किचड़ नहीं उछला । शिवपालगंज में ऐसे मामलों पर कोई ध्यान देता भी नहीं । दिक्कत तब हुई जब थरूर ने राजनीति और क्रिकेट के असली संबंधों को समझे बगैर गलत शॉट लगा दिया । आईपीएल के गोरखधंधे में जरूरत डेलीकेट कवर ड्राइव की थी और आपने सीधे सहवाग के अंदाज में लांग ऑन पर छक्का मार दिया । अब क्या था, बौखला गए मोदी साहब । दूसरी गलती , शिवपालगंज की राजनीति में सब कुछ माफ है लेकिन जब किसी गैर राजनीतिक सुंदर महिला की एंट्री होती है तो बवाल होना तय है । थरूर के चाहने भर से शिवपालगंज की हिप्पोक्रेसी रातों - रात तो दूर नहीं हो सकती । इसलिए नहीं हुई और अति आत्मविश्ववास के कारण थरूर भैया नप गए ।सच पूछिए तो, भैया जी आपसे बड़ी उम्मीदें थी। आपकी अंग्रेजी और आकर्षक व्यक्तित्व, देश के बड़े काम आ सकता था । मैडम का भी यही मानना था । लेकिन क्या करें ,हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले । कांग्रेस के शनिचरों को आकलन आपने ठीक से नहीं किया और नतीजा...बड़े बेआबरू होकर कूचे से हम निकले । अब फुर्सत है , आराम से टिवटर पर देश विदेश के तरक्की पसंद लोगों से गूफ्तगू कीजिए । शुभकामनाएं

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

सानिया और संगीता

सानिया मिर्जा की शादी में देश और खासतौर पर मीडिया ने बड़ी रूचि दिखाई । रोने गाने वाले अपनी- अपनी कला की नुमाईश करते नजर आए। बहरहाल शादी हो गई और देश की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा । ऐसा लगता था कि सानिया की शादी के बाद देश पर भारी आपत्ति आने वाली है। देश की शान, सानिया जब पाकिस्तान की नूरे नजर हो जाएंगी तो भारतवासियों की गर्दन को हमेशा के लिए लकवा मार जायेगा । लटकी रह जायेगी बेचारी । कहने वाले तो सानिया की बिदाई को कोहेनूर हीरे की जुदाई से जोड़ कर देख रहे थे । और इसीलिए जार जार टेसू बहा रहे थे । बहरहाल तमाशा नहीं हुआ और बड़े आराम से सानिया के हाथों पर मेंहदी सजी और वो दुल्हन भी बन गईं ।बहरहाल सानिया को देश की ओर से एक बड़ा ही हसीन तोहफा मिला है। उज्जैन के एक दंपत्ति ने कुछ साल पहले सानिया की उपलब्धियों से प्रभावित होकर अपनी बेटी का नाम सानिया रखा। अब उन्होने इसका नाम बदलकर संगीता रख दिया है । इस तरह सानिया अब संगीता हो गई है । जी, हमारी अपनी सानिया शादी के बाद हमारे लिए इस हद तक परायी हो गयी कि अब उसका नाम भी गंवारा नहीं । बात बड़ी साफ है । राष्ट्रवाद की कच्ची समझ के कारण उज्जैन के इस दंपत्ति को सानिया से अचानक नफरत हो गई । वैसे संगीता अगर सानिया ही रहती तो क्या फर्क पड़ता । अपने खेल से देश को सम्मान दिलाने वाली सानिया हमें टेनिस की वजह से ही अजीज है । वैसे ही जैसे किसी दौर में स्टेफी ग्राफ या अब विलियम्स बहने हैं । स्टेफी शादी के बाद अगर अमेरिका चलीं गयीं तो क्या ये तकलीफ किसी जर्मन को हुई होगी । खेल और राष्ट्रवाद का रिश्ता तो फिर भी समझ में आता है लेकिन किसी खिलाड़ी की निजी जिन्दगी को राष्ट्रीय धरोहर मान लेना क्या ठीक है । खैर इस मुद्दे पर अलग अलग राय हो सकती है । बहरहाल मेरी तरफ से सानिया को ढ़ेर सारी शुभकामनाएं । संगीता को भी ढ़ेर सारा प्यार ।