एक अच्छी कविता लिखने के लिए तुम्हें बहुत से नगर और नागरिक और वस्तुएं देखनी-जाननी चाहिए। बहुत से पशु और पक्षी ...पक्षियों के उड़ने का ढब, नन्हें फूलों के किसी कोरे प्रात: में खिलने की मुद्रा, अज्ञात प्रदेशों ...अनजानी सड़कों को पलटकर देखने का स्वाद। अप्रत्याशित से मिलन। कब से अनुमानित बिछोह। बचपन के अनजाने दिनों के अबूझ रहस्य, माता-पिता जिन्हें आहत करना पड़ा था, क्योंकि उनके जुटाए सुख उस घड़ी आत्मसात नहीं हो पाए थे। आमूल बदल देनेवाली छुटपन की रुग्नताएं। खामोश कमरों में दुबके दिन। समुद्र की सुबह। समुद्र ख़ुद। सब समुद्र। सितारों से होड़ लगाती यात्रा की गतिवान रातें।
नहीं, इतना भर ही नहीं। उद्दाम रातों कि नेह भरी स्मृतियाँ ...प्रसव पीड़ा में चीखती औरत। पीली रोशनी। निद्रा में उतरती सद्य: प्रसूता। मरणासन्न के सिरहाने ठिठके क्षण। मृतक के साथ खुली खिड़की वाले कमरे में गुजारी रात्रि और बाहर बिखरा शोर।
नहीं, इन सब यादों में तिर जाना काफी नहीं; तुम्हें और भी कुछ चाहिए ....इस स्मृति -सम्पदा को भुला देने का बल। इनके लौटने को देखने का अनंत धीरज .....जानते हुए कि इस बार जब वह आएगी तो यादें नहीं होंगी। हमारे ही रक्त, मुद्रा और भाव में घुल चुकी अनाम धप-धप होगी, जो अचानक, अनूठे शब्दों में फूटकर किसी घड़ी बोल देना चाहेगी, अपने आप।
.......एक ही काम है जो तुम्हें करना चाहिए - अपने में लौट जाओ। उस केन्द्र को ढूंढो जो तुम्हें लिखने का आदेश देता है। जानने की कोशिश करो कि क्या इस बाध्यता ने तुम्हारे भीतर अपनी जड़ें फैला ली हैं? अपने से पूछो कि यदि तुम्हें लिखने की मनाही हो जाए तो क्या तुम जीवित रहना चाहोगे? ...अपने को टटोलो...इस गंभीरतम ऊहापोह के अंत में साफ-सुथरी समर्थ 'हाँ'' सुनने को मिले, तभी तुम्हें अपने जीवन का निर्माण इस अनिवार्यता के मुताबिक करना चाहिए। या फिर
अगर अपना रोज का जीवन दरिद्र लगे तो जीवन को मत कोसो। अपने को कोसो। स्वीकारो कि तुम उतने अच्छे कवि नहीं हो पाए कि अपनी रिद्धियों-सिद्धियों का आह्वान कर सको। वस्तुतः रचयिता के लिए न दरिद्रता सच है, न ही कोई स्थान निस्संग। अगर तुम्हें जेल की पथरीली दीवारों के अंदर रख दिया जाए जो एकदम बहरी होती हैं, और एक फुसफुसाहट तक भीतर नहीं आने देतीं, तब भी तुम्हें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। तुम्हारे पास बचपन तो होगा...स्मृतियों की अनमोल मंजूषा...एकांत विस्तृत होकर एक ऐसा नीड़ बनाएगा, जहाँ तुम मंद रोशनी में भी रह सकोगे।
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6 टिप्पणियां:
आभार इस उम्दा आलेख के लिए.
इस लेख को पढ़ना दुनिया के सबसे हसीन एहसासों में से एक है। ये लेख तो पहले अपने आप में एक कविता जैसा लगता है। इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मैं सोचता हूं कि कम से कम मुझे कविता की विधा में अपना हाथ नहीं जलाना चाहिए...एतद द्वारा मैं घोषणा करता हूं कि अतीत में लिखी गई मेरी सारी कविताएं खारिज की जाती है..क्योंकि कविता लिखने के लिए जो दिल चाहिए..वो मेरे पास नहीं है।
सुशांत जी..हो सकता है आपको ये तमाम भावनाएं आपके भीतर बिल्कुल इसी तरह उमड़ी हों... जैसा आपने लिखा है... लेकिन ये अधिकारबोध क्यों पालकर बैठे हैं... जो कुछ आपने लिखा वो आपका था... कम से कम ये लेख पढ़ने के बाद तो आपको ऐसी सोच से खुद को दूर कर ही लेना चाहिए था... लिहाजा कुछ खारिज करने से पहले.. ये समझ लेने की कोशिश होनी चाहिए... क्या वाकई जो कुछ आपने लिखा वो आपका था.. या फिर किसी और का...जो उस खास मनोदशा, खास तरह के माहौल... खास तरह के हालात से कुछ चुरा लाया था... और की थी ईमानदार कोशिश अपनी बात कहने की... दुनिया में कुछ भी अंतिम सत्य नहीं होता...लिहाजा, इतनी बड़ी बात कहते हुए...इतनी हड़बड़ी ठीक नहीं... हालांकि ये मेरे अपने विचार हैं.... आप आजाद हैं...वर्तमान की संभावनाओं के हिसाब से अपने व्यक्तित्व का कोई भी हिस्सा हमेशा के लिए खारिज करने के लिए....शेष सब ठीक है।
काश हमें भी हिन्दी में शब्द लिखने आता. लेकिन हमें प्रभातजी का लेखन बहुत ही
अच्छा लगा कियुं की मैं हिन्दी पढ़ सकता हूँ और बंगला मेरा मत्री भाषा है जिसे हमें गर्ब हे.
कभी मैं भी कबिता लिखता था और शब्द में खो जाता था. इतने अच्छा लेखन पढ़के मुझे हिन्दी में खो जाने का मन करता हे लेकिन अफ्सोश.... काश .......
देब्दुलाल पाहादी (देब) . debdelhi@gmail.com
1996 में राजी सेठ जी का अनुवाद प्रकाशित हुआ था। दो आकर्षण थे… एक तो कविता लिखना शुरू किया ही था और दूसरा जर्मन सीख रह था और रिल्के जर्मन कवि थे… 2 प्रतियाँ खरीदीं… अपने और अपने मित्र के लिये और पढ़ना शुरु किया। जो अच्छा लगा उसे रेखांकित कर लिया। अन्त में पूरी किताब ही रंगीन हो गई। ये पत्र किसी भी कवि के गीता हो सकते हैं… इतने बार पढ़ा है इन पत्रों को कि आत्मसात हो गये हैं। फ़िलहाल किताब पीछे घर पर ही छूट गयी थी सो यहां वही जाने पहचाने शब्द पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
शुभम।
अद्भुत..
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