बर्दाश्त करना है
क्योंकि नांव छोड़ी नहीं जा सकती
नदी के बीचो – बीच।
नांव पर सवार
आकाश की ओर मुंह उठाये
रेकियाते/जैसे ईश्वर को गरियाते
सहयात्री, इन गदहों को (गधों को)
पार उतरने तक बर्दाश्त करना है
चोट सहना भी विवशता
चुपचाप
कौन सिर्फ प्रतिशोध के लिए मारेगा दुलत्ती
किसी गदहे को।
सोमवार, 14 अप्रैल 2008
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2 टिप्पणियां:
अद्भुभुत है, भाई यह कविता तो. टेलीविजन चैनलों में फंस से गए साथियों के लिए या यूं कहें कि पूरी पत्रकार बिरादरी के थोड़े से समझदार लोगों को संतोष देने वाला.
अजीत
हुजूर, जमीन बने रहना बड़ी बात है...और अगर आप कीमती भी हैं तो क्या बात है....अजी मकां तो बन बन के उजड़ते रहते हैं...जमीं हैं तो ही बेशकीमती हैं....एक खैरख्वाह
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