रविवार, 22 जून 2008

दि थर्ड वर्ल्ड

गुलज़ार साहब की नज़्म
(आज किताबों की धुल पोंछते हुए करीब एक दशक से ज्यादा पुरानी एक  मैगजीन में गुलज़ार साहब की  ये नज़्म मिल गई । तब नई थी और मौज़ूं भी... । पढ़ने में  आज भी अच्छी लगी तो ले आया )


जिस बस्ती में आग  लगी थी कल की रात 

उस बस्ती में मेरा  कोई नहीं  रहता था,

औरतें बच्चे, मर्द कई और उम्र रसीदा लोग सभी , वो

जिनके सर पे जलते हुए शहतीर गिरे 

उनमें मेरा कोई नहीं था ।

स्कूल जो कच्चा पक्का था और बनते बनते खाक हुआ

जिसके मलबे में वो सब कुछ दफ़न हुआ जो उस बस्ती का 

मुस्तक़बिल कहलाता था

उस स्कूल में-

मेरे घर से कोई कभी पढ़ने न गया न अब जाता था

न मेरी दुकान थी कोई 

न मेरा सामान कहीं ।

दूर ही दूर से देख रहा था

कैसे कुछ खुफ़िया हाथों ने जाकर आग लगाई थी ।।

जब से देखा है दिल में ये खौफ बसा है

मेरी बस्ती भी वैसी ही एक तरक्की करती बढ़ती बस्ती है 

और तरक्कीयाफ़्ता कुछ लोगों को ऐसी कोई बात पसंद नहीं।।

गुरुवार, 12 जून 2008

तब तो ओबामा हार जाएगें।

जैसे ही हिलेरी क्लिंटन की दावेदारी ख़त्म हुई वैसे ही कहा ये जाने लगा कि हिलेरी ओबामा का समर्थन करेगी। इसके बाद से ही हिलेरी के समर्थक असमंजस में हैं। अमेरिका में कई सर्वेक्षण इस तरफ इशारा कर रहे हैं कि हिलेरी को समर्थन देने वाले कई वर्ग ओबामा का समर्थन करने के मूड में नहीं है। उनका वोट सीधे रिपब्लिकन राष्ट्रपति उम्मीदवार जॉन मेक्कन को जा सकता है। इस दौड़ में सबसे आगे हैं, वो श्वेत अमेरिकी जो कामकाजी वर्ग यानी वर्किंग क्लास से आते हैं। दूसरा सबसे बड़ा वर्ग है हिलेरी को समर्थन देने वाली महिलाएं। ये महिलाएं हिलेरी के बाद अब मेक्कन की ओर देख रही हैं।
शिकागो ट्रिब्यून मैगज़ीन ने 2004 में ही छापा था कि ओबामा को इसलिए कुछ श्वेत पसंद करते हैं, क्योंकि वो पूरी तरह काली नस्ल के नहीं है। मतलब ये कि चूंकि ओबामा की मां एक अमेरिकी श्वेत और पिता अफ्रीकी, इसलिए उन्हें पूरी तरह अश्वेत नहीं माना जा सकता, लेकिन अगर वो पूरी तरह अफ्रीकी नस्ल के होते तो। आज अमेरिका में ये बहस चरम पर है कि बराक ओबामा देश की विदेश नीति और आर्थिक नीति को संभालने और आगे बढ़ाने के लिए सही आदमी नहीं है। एक बड़ा वर्ग ये प्रचारित करने में जुटा है कि अमेरिका ओबामा के हाथों में सुरक्षित नहीं है।
अगर ओबामा हारते हैं तो उसका एक बड़ा कारण होगा उनका पूरा नाम ही। यानी "बराक हुसैन ओबामा" । इस नाम में लगा हुसैन बड़ा गुल खिला सकता है। लेकिन साथ ही महाशक्ति को आज इस नाम की ज़रुरत भी है, ख़ासकर 9/11 के मुस्लिम विरोधी अभियान के बाद। अमेरिका के जाने टिप्पणीकार अपने एक लेख में लिखते हैं कि ओबामा के साथ ही नस्लवाद का अंत हो जाएगा। क्या नस्लवाद के अंत के लिए ओबामा का इंतज़ार था जिसे ख़ुद मार्टिन लूथर किंग जूनियर भी नहीं मिटा सके। अमेरिका की एक पत्रिका लिखती है कि अमेरिकी की आर्थिक मंदी, बढ़ती महंगाई, विदेशी नीति की असफलता और इराक़ जैसे घावों के बाद भी अगर रिपब्लिकन उम्मीदवार ओबामा को हरा देता है तो इसका सिर्फ एक ही कारण होगा और वो है नस्लवाद। जाने माने इतिहासकार पॉल स्ट्रीट मानते हैं कि ओबामा को नस्लवादियों का सामना करना होगा।
अंत में। क्या मैं ये साबित कर रहा हुं कि अमेरिका आज भी नस्लवादी है? अगर ऐसा है तो कुछ दूसरे तथ्यों पर नज़र डालें। वियतनाम युद्ध के दौरान मारे गए अमेरिकी अश्वेत सैनिकों की संख्या श्वेत सैनिकों के मुक़ाबले दोगुनी थी। इसी दौरान न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा, हब्शियों को वियतनाम में अपने देश के लिए अपने हिस्से की लड़ाई करने का पहली बार मौका दिया गया है। यही नहीं उन काले सैनिकों को अलग दफनाया भी गया। ये तो हुई थोड़ी पुरानी बात, कुछ नए तथ्य। आज अमरीका की कुल आबादी के 12 फ़ीसदी अफ्रीकी सभी सशस्त्र बलों में 21 फीसदी और अमेरीकी सेना में 29 फीसदी हैं, जबकि वे अमरिका की कुल आबादी का सिर्फ 12 फीसदी है। इराक़ में भी यहीं अश्वेत बलिदान देने में आगे हैं। क्या ये सिर्फ एक संयोग है। मतदान का अधिकार लेने के लिए कड़े संघर्ष के बाद आज 14 लाख अफ्रीकी अमरीकियों यानी वोट देने वाले अश्वेत लोगों की 13 फीसदी आबादी को मामूली अपराधों के कारण मताधिकार से वंचित कर दिया गया है। यानी तब तो ओबामा हार जाएगें।

शनिवार, 7 जून 2008

ख़बर ख़ास है...

        प्रभात रंजन


इतिहास  को भले ही  बदला नहीं जा सके , लेकिन आंखो में अगर शर्म हो तो अपनी कारगुजारियों के िलए माफी तो मांगी ही जा सकती है। ब्रिटिश इतिहासकार अॉिलवर बियारर्स को भारत पर ब्रिटिश जुल्म ने इस कदर आहत किया कि, उन्होने इसके लिए सरेआम माफी मांगने का इरादा बना लिया। फिर क्या था अॉलिवर निकल पड़े अपने घोड़े पर । अंदाज थोड़ा शाही है लेकिन तेवर ठेठ हिन्दुस्तानी । दोनो हाथ जोड़कर अॉलिवर रास्ते में मिलने वाले सभी लोगो से 1857 के विद्रोह के दौरान हुए अत्याचारों की माफी मांग रहे है। खेतों में , सड़को पर - किसानो से और मजदूरों से- अॉलिवर सभी से मुखातिब होते हैं।  शिमला से शुरू हुआ इस हैम्पशायर के इितहासकार का सफर हरियाणा और दिल्ली होते हुए ,मेरठ तक जायेगा। अाखिरकार मेरठ से ही तो 1857 के विद्रोह की चिंगारी फूटी थी । बाद में बेहिसाब ताकत के बल पर  आजादी के िलए  इस पहली चीख को दबा दिया गया था। लाखों की तादाद में लोग मार डाले गए । आज 150 सालों बाद अॉलिवर इसी दमन की माफी मांग रहे है । वैसे तो तब के  ब्रिटिश हुकूमत के दामन पर और भी कई गहरे दाग है , लेकिन कभी भी ब्रिटेन की सरकार ने उसके लिए  शर्मिन्दगी नहीं दिखाई। अॉलिवर जो कुछ भी कर रहे है उसके िलए वे तारीफ के साथ - साथ हमारे प्यार के भी हकदार है । वैसे तो  माफी मांगने के बावजूद भी इतिहास  नहीं बदलता ... लेकिन कम से कम इंसानियत का तकाजा तो पूरा होता है । 


ख़बर ख़ास है... इंडिया न्यूज दिस विक का एक हिस्सा है 

बुधवार, 4 जून 2008

जब तलक रिश्वत न ले हम दाल गल सकती नहीं, नाव तनख़्वाह की पानी में तो चल सकती नहीं।

आज से लगभग 60 साल पहले जोश मलीहाबादी का लिखा ये शेर उनके पहले भी लागू होता था और आज भी हर्फ-ब-हर्फ लागू होता है। ये सच्ची कहानी है कि एक बाप उस दिन बहुत खु़श हुआ। जब उसके दो बेटों में से छोटा बेटा सिविल इंजीनियर बना और टेबल के नीचे के कारोबार से कुछ ही सालों में खू़ब पैसे पीट डाले। खपरैल, दो मंज़िला इमारत में तबदील हो गई। गांव भर में उसने ऐलान किया कि "ये है मेरा लायक बेटा"। अगले दिन ही बाबूजी मोटरसाइकिल के शहर निकले। गढ़ढ़ों के बीच सड़क ढ़ूंढते-ढ़ूंढते हीरोहोंडा पस्त हो गई। उसने हाई-वे पर ऐलान कि "सब साले चोर हैं, सड़क बनाने के नाम पर इंजीनियर से लेकर ठेकेदार तक जनता को धोखा दे रहे हैं। पता नहीं इस देश का क्या होगा।"
कौटिल्य ने हज़ारों साल पहले अपने अर्थशास्त्र में लिखा था कि शासन में भ्रष्टाचार 40 तरीके से अपनी जगह बनाता है। कमाल की बात है कि आज भी उनकी बात जस की तस है। तरीके बढ़ गए हों तो कह नहीं सकते। अभी इस पर शोध करना शेष है। एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था भ्रष्टाचार विरोधी उपायों के मामले में हमें 10 में से सिर्फ 3.5 (साढ़े तीन) नंबर देती है। लेकिन ख़ुश होने वाली बात ये है कि भ्रष्टाचार की इस शर्माने वाली ऊंचाई पर अकेले हम हीं नहीं खड़े बल्कि चीन, ब्राज़ील जैसे देश भी हैं। विकसित अर्थव्यवस्था में काफी ऊपर मौजूद जापान भी सबसे भ्रष्ट देशों में गिना जाता है। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में तो कई प्रधानमंत्रियों का नाम ही भ्रष्टाचार के आरोपों से साथ लिया जाता है।
मैं कहना चाह रहा था कि ये हमाम ऐसा है जहां सभी ये कह कर भी पल्ला नहीं झाड़ सकते कि ये अंदर की बात है। एक आकलन कहता है कि अगर भ्रष्टचार 1 फीसदी कम हो जाए तो विकास दर 1.5 फीसदी तक बढ़ सकती है। क्योंकि इसकी सबसे ज्यादा मार ग़रीबों पर पड़ती है। एक सर्वेक्षण तो ये भी कहता है कि ग़रीबों की 25 फीसदी कमाई घूस देने में ही चली जाती है। लेकिन ये चर्चा ही बेमानी है क्योंकि लगता है कि ये मुद्दा सुर्खियां तो बन जाती हैं, लेकिन हमें परेशान नहीं करती। हम इसे ठहराने लगे हैं। जयललिता से लेकर लालू तक को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि भ्रष्टाचारी होने का आरोप वोट कटने का कारण नहीं बनता। एक बदलाव ज़रुर आया है, और वो है आज अपना उल्लू सीधा करने के लिए सूचना के अधिकार का इस्तेमाल ख़ूब हो रहा है। अब तो इसके लिए बजाप्ता ऐजेंटी भी होने लगी है। मैं इधर सोच रहा हूं कि जब ये पूरी दुनिया में फैला है तो क्या हमें इस पर सिर खपाने की ज़रुरत है। ये तो आप ही बताएं ?