गुलज़ार साहब की नज़्म
(आज किताबों की धुल पोंछते हुए करीब एक दशक से ज्यादा पुरानी एक मैगजीन में गुलज़ार साहब की ये नज़्म मिल गई । तब नई थी और मौज़ूं भी... । पढ़ने में आज भी अच्छी लगी तो ले आया )
जिस बस्ती में आग लगी थी कल की रात
उस बस्ती में मेरा कोई नहीं रहता था,
औरतें बच्चे, मर्द कई और उम्र रसीदा लोग सभी , वो
जिनके सर पे जलते हुए शहतीर गिरे
उनमें मेरा कोई नहीं था ।
स्कूल जो कच्चा पक्का था और बनते बनते खाक हुआ
जिसके मलबे में वो सब कुछ दफ़न हुआ जो उस बस्ती का
मुस्तक़बिल कहलाता था
उस स्कूल में-
मेरे घर से कोई कभी पढ़ने न गया न अब जाता था
न मेरी दुकान थी कोई
न मेरा सामान कहीं ।
दूर ही दूर से देख रहा था
कैसे कुछ खुफ़िया हाथों ने जाकर आग लगाई थी ।।
जब से देखा है दिल में ये खौफ बसा है
मेरी बस्ती भी वैसी ही एक तरक्की करती बढ़ती बस्ती है
और तरक्कीयाफ़्ता कुछ लोगों को ऐसी कोई बात पसंद नहीं।।
3 टिप्पणियां:
waah..bahut sundar nazm padhwai aapne.
गुलजार साहब का कोई जबाब नहीं. बहुत बढ़िया.
पहली बार इस तरफ आना हुआ .और ये आना सार्थक हुआ.सरसरी कई चीज़ें नज़र से और बहुत कुछ जेहन से होकर गुजरी.मुबारक हो भाई .
क़सम हलफ़नामे की.
अपन तो नए खिलाडी हैं .कभी मेरी तरफ भी गुज़र हो तो सुझाव दीजिये .
इंतज़ार रहेगा.
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