गुरुवार, 3 अप्रैल 2008

मेरा होना ----

कुछ कहने की अकुलाहट और चुप रहने की बेबसी के बीच में . एक शाम है . घर की ओझल दीवार में कहीं दहलीज की तरह. और एक मैं हूं.
मैं भी हूं. बने रहने की जरूरत और खत्म होने की बैचेनी के साथ. जैसे ये शहर है . होने और ना होने की पूरी सार्थकता के साथ .
पेड़ की फूनगियों पर रहेगी धूप . आखिर तक . कि जैसे आंखों में रहती हैं उम्मीद. और कभी सर्दियों मे कीचड़ . आखिरकार पोंछ दिए जाने तक . मैं भी रहूंगा .
मेरा होना ठीक वैसे नहीं कि, जैसे पिछली सदी की आखिरी कविता में मौजूद था एक आदमी. प्रेमिकाओं के पहने हुए गहने की तरह मेरा मूल्य है. सुखद स्मृतियॉ नहीं . बेहद तकलीफ में याद किए जाने वाले गुनाहों की तरह, क्षमा – प्रार्थनाओं में रहता हूं.
मेरा होना , भाषा में गाली होने की तरह अनिवार्य . मगर अवांछित.
मैं हूं - किसी ढ़ही हुई इमारत की कीमती जमीन की तरह .

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