प्रभात रंजन
( संदर्भ -- हुआ यूं कि कुछ दिन पहले अनायास इंडिया टूडे के विशेषांक पर नजर पड़ गई । इसमें 60 महानतम भारतीयों का चयन है... (मापदंड का जिक्र नहीं )। इसमें दस लोगों की एक और सूची है जो इंटरनेट और दूसरे तरीकों से जनता की राय लेकर बनाई गई है । सबसे ज्यादा वोट भगतसिंह को मिले है और उसके बाद सुभाष चन्द्र बोस को। तीसरे पायदान पर महात्मा गांधी हैं ।)
उन दिनों तमाम दूसरी नई चीजों के अलावा गांधी जी पर बहस करना भी एक नया और अजीब शौक था । जिस मैदान में हम क्रिकेट खेलते थे ,उसके एक कोने में गांधी जी की एक प्रतिमा थी। और यह भी एक वजह थी कि रोज शाम में खेल चूकने के बाद मगज़मारी का जो सिलसिला शुरू होता था उसमें अक्सर गांधीजी ही छाये रहते थे । वैसे ये बहस क्लास रूम से लेकर सब्जी बाजार तक कहीं और कभी भी हो सकती थी .... बस दो- चार मित्रों की जरूरत होती थी । वैसे करने को तो और भी कई बातें थी , मसलन क्रिकेट या शहर में हुई कोई वारदात लेकिन जो उत्तेजना गांधी जी के मामले में होती थी , उसका कोई सानी नहीं था। गांधी जी के नाम पर जो बवाल होते थे उसकी तह में दो - तीन ही लोग थे। भगत सिंह , सुभाष और नेहरू। और कुल मिलाकर दो- चार बातें .... जो अहिंसा और गांधी जी के मुस्लिम प्रेम से जुड़ी थी । कभी-कभार बेतुकी और बेहुदा बातें भी इसमें शामिल हो जाती थी, लेकिन मोटे तौर पर यार लोग इतिहास के इर्द – गिर्द रहने का प्रयास करते थे । ये अलग बात है कि सुनी – सुनाई हमारी बातों में इतिहास, हमारी उम्र जितना ही होता था। आखिरी बात .... उन दिनों कभी ऐसा मौका नहीं आया जब भगत सिंह , सुभाष और नेहरू को लेकर गांधीजी ने भला बुरा नहीं सुना हो । यहां तक कि देश को तबाह ओ बरबाद करने का संगीन इल्जाम भी उनके ही मत्थे था । भगत सिंह और सुभाष की बात करते करते यार लोग इतने भावुक हो जाते कि एक चुप्पी सी पसर जाती और इस खालीपन में नाथुराम गोडसे की आत्मा गोते लगाने लगती थी।
खैर होंठो के ऊपर मूंछ का एहसास अभी ताजा था , और रगों में खून ने उबाल मारना तुरंत ही शुरू किया था । जो था ... लाजिमी था।
ये हाई स्कूल के दिन थे ।
फिर एक लम्बा अरसा गुजर गया। गुजरे सालों में देश बहुत बदला। इतिहास क्योंकि बदल नहीं सकता था , इसलिए बदला नहीं जा सका। गांधी जी बदस्तूर राष्ट्रपिता बने रहे और भगत सिंह शहीदेआजम । लेकिन एक चीज और नहीं बदली..... गांधी जी और भगत सिंह को लेकर हमारी किशोरवय सोच । हाई स्कूल के छात्रों की तरह आज भी गांधी जी के खिलाफ बोलना बौद्धिक दबंगई के लिए जरूरी है। दूसरी ओर दीवार पर क्रांति लिखने वालों की एक जमात आज भी भगत सिंह को झंडे की तरह उठाए हुए है। कोई इंटरनेट पोल के माध्यम से जानने का बचकाना प्रयास करता है कि गांधी बड़े या भगत- सुभाष । और लोग बेचारे ..... तीसरे पायदान पर फेंक देते है महात्मा को ।
यूं तो हम कई मसलों पर लगातार बहस में हैं..... जाति , धर्म , सांप्रदायिकता , शायर ,समाज और न जाने क्या – क्या । लेकिन गांधी जी पर भी गाहे बिगाहे एक गंभीर बहस की दरकार है ।
एक नई बहस इस लिए भी जरूरी है , क्योंकि अब हम हाई स्कूल में नहीं है।
आइए शुरू करें .....।
बुधवार, 21 मई 2008
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