प्रभात रंजन
...क्योंकि ये अच्छी तरह जानते हैं कि इन्होने क्या गुनाह किया है।
सैकड़ो-हजारों बार सुने हुए से अल्फाज...मीडिया और मीडिया के नाम पर थोथे,बेकार से शब्द...बाजार उपभोक्तावाद न्यूज रूम की मजबूरियां...हाय री सिर होने की दुश्वारियां...हाय री दुश्वारियों में फंसे दोस्तों की फरमाबर्दारियां...यहीं वो जगह है जहां कत्ल हुए थे तुम...ज्यादा पुरानी बात नहीं...और तब तुम्हारे गर्म उबलते खुन ने जमीन से कुछ वादे किए थे...लेकिन जंगल की हरियाली में तुम्हारी आत्मा ऐयाश हो गई...तुम देखते रहे...ताश की गड्डी मे से निकल कर एक जोकर सिंहासन पर जा बैठा...हैरान परेशान राजा मंत्री - यहां तक कि रानी भी...और तुम हुक्म बजा लाने के सामां हो गए...हैरत की बात नहीं दोस्त...भूख हर तहजीब को खा जाती है...खासकर के वो तहजीब जो तुमने किसी और से उधार ली हो...और जिस पर जमा ली हो तुमने अपनी दुकान...खैर जाने दो दोस्त...ठीक इसी नुक्ते पर कोई भी पालतू होने को मजबूर होता है... मैं जानता हूं मेरे भाई कि तुम्हारी आत्मा का भी एक चोर दरवाजा है जो संडास के पीछे खुलता है...लेकिन मैं क्या करूं...मैं आज भी व्याकरण की नाक पर रूमाल रखके...निष्ठा का तुक विष्ठा से नहीं मिला सकता...शायद इसीलिए जहां हूं, मेरी जगह वही हैं...मैं मानता हू कि मैने भी गलत किया...इस बंद कमरे को जहाजी बेडो का बंदरगाह समझके...इस अकाल बेला में...लेकिन क्या सचमुच तुम्हारी आत्मा का कोई भी अंश जीवित नहीं...हालाकि जीवित हो तुम...बावजूद इसके कि सब कुछ मर सा गया है...लिया बहुत कुछ दिया कुछ भी नहीं...फिर भी तुम जीवित हो...लेकिन मेरे दोस्त...जीने के पीछे अगर तर्क नहीं है...तो रंडियों की दलाली करने...और रामनामी बेच के जीने में...कोई फर्क नहीं है...दुख तो यही है कि तुम्हे तर्क की जरूरत नहीं...बावजूद इसके कि तुम्हारी पूरी जिन्दगी एक घटिया फिल्म के इंटरवल तक पहूंच चुकी है...तुम बडे मजे से अपने बच्चे के साथ पॉपकार्न चबा रहे हो...और संतुष्ट हो...जब कि तुम्हारे एक इंकार की जरूरत है...जबकि तुम्हारे एक विरोध से नए रास्ते निकल सकते हैं...कुछ और हो या ना हो...रथ पर खडे एक शिखंडी की मौत हो सकती है...यकीन करो दोस्त उसका हिजडापन पूरी पीढी के लिए एक बडी चुनौती है...लेकिन इन सबसे संज्ञान...तुम बह्मराक्षस बने हुए हो...क्योंकि तुम्हे लगता है...सूरज तुम्हें शीश झुकाने को निकलता है...और चांद तुम्हारी संध्या आरती के लिए...तुम खबरों में झूठी सार्थकता तलाशने का दंभ भरते हो...एक चोट खाये स्वाभिमान को चाटते...अपनी काबिलियत का स्वांग भरते हो...ठीक उस वक्त जब एक हिजडा अपनी नामरदी का डंका पीट रहा होता है...तुम चुप रहते हो...सच तो ये है कि तुम भी अपराधियों के संयुक्त दल के हिस्से हो... सच तो ये है कि...खैर आवाज देने से भी कुछ फायदा नहीं...उसने हर दरवाजा खटखटाया है...जिसकी भी पूंछ उठाई...उसे मादा पाया है...ये हमारे दौर की खूबसूरती है...तुम्हे सबकुछ बर्दाश्त है...क्योंकि तुम्हारी जरूरत अदद बीबी बच्चे और मकान है...इसके बाद जो कुछ भी है...बकवास है...फिर ये विधवा विलाप क्यों...कल जब पचासों सिर कलम कर दिए गए, और तुम तमाशा देखते रहे...हाथ कट गए और तुम सिर बने,बाल नोचते रहे...जब कुछ बेहद ईमानदार लोग तबाह हो गए...किस अदा से तुम जहांपनाह हो गए...सवाल तीखे हैं...मगर बेखबर से तुम...ड्रामेटिक अंदाज में मीडिया की मौजूदा मजबूरियों पर बहस करना चाहते हो...सेमिनार के बहाने...अपने बचे रहने की दलील देना चाहते हो...लेकिन तुम नही जानते दोस्त...बेमतलब शब्दों के सहारे ये मोर्चा हम हार जायेंगे...तुम नहीं जानते दोस्त, हिजडापन एक संक्रामक बिमारी है...जो हमले के लिए हमारे ठीक पीछे खडी है...और खबरों पर होने वाली किसी भी बहस से ज्यादा जरूरी है...इंसानी हक में खडा होना...(जो हमारे पेशे की टैग लाईन भी है)...दोस्त मेरे, पेट से अलग ,पीठ में एक रीढ की हड्डी होती है...तुम्हे याद दिला दूं...जो जीने की सबसे अनिवार्य शर्त होती है।
गुरुवार, 6 अगस्त 2009
शुक्रवार, 3 जुलाई 2009
गांव लौट जाना चाहता हूं
मित्रों को मजाक लगता है.कुछ ज्यादा संवेदनशील मित्र इसे काम का दबाव मानते हैं.कुछ ऐसे भी हैं जो इसे बकवास करार देंगे.दरअसल मेरी ख्वाहिश ही कुछ ऐसी है जिसे लोगबाग गंभीरता से नहीं लेते.मैं वाकई गांव वापस लौट जाना चाहता हूं.इसके पीछे कोई ठोस वजह नहीं है.शुरू शुरू में ये ख्याल एक लहर की तरह आया.लेकिन अब गाहे बिगाहे परेशान करता है.दावे के साथ कह सकता हूं कि इस ख्याल की वजह नास्टेल्जिया नहीं है.गांव में जाकर कोई सामाजिक आर्थिक क्रांति करने का इरादा भी नहीं.बस गांव में जाकर बसना चाहता हूं.हालाकि वहां से कभी उजड़ा हूं, ऐसा भी नहीं.मैं तो शुद्ध कस्बाई हूं.लेकिन गांव करीब था इसलिए आना जाना लगा रहा.अब नए सीरे से गांव में बसने को जी चाहता है.वैसे ही जैसै मेरे पूर्वज बसे होंगे पहली बार.मैं जानता हूं ये फैसला इतना आसान नहीं. जीवन यापन का सवाल एक बार फिर मुंह बाए खड़ा होगा.इसके अलावा कई साल दिल्ली जैसे शहर में गुजारने के बाद ठेठ गांव में जाकर रहने की अपनी चुनौतियां होंगी.दिक्कतें होंगी इतना जानता हूं.फैसले में हो रही देरी भी इसी वजह से है.लेकिन सच्चाई यही है कि इस शहर में होने की एक भी वजह मेरे पास नहीं है.किसी भी दूसरे प्रवासी की तरह इस शहर ने मेरी भी पहचान सालों पहले खत्म कर दी थी.पढाई लिखाई तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन अब इस शहर का क्या करूं.कुछ ना करते करते एक दिन मैने खुद को इस शहर में रोजगार करते पाया.इस शहर ने मुझे रोजगार दिया है और इसके एवज में मुझसे हरेक चीज ले ली है जो मेरी अपनी होती थी.यहां तक कि मेरी आदतें भी.कई महिने गुजर गए, गालिब को नहीं पढ़ा.श्मशेर मेरे सामने धूल फांकते उदास बैठे रहते है.कमोबेश मेरे घर में कुछ सालों से उपेक्षा के ऐसे ही शिकार हैं मुक्तिबोध रघुवीर सहाय धूमिल और मजाज.यकीन मानिए जिन्दगी बड़ी ही नीरस हो चली है.कुछ इसकी वजह मेरे काम का अपना स्वभाव भी है.लेकिन काम करने की मजबूरी समझ में नहीं आती.किसी फरमाबर्दार नौकर की तरह अपने काम को अंजाम देता हूं.मैं भी किसी शाह का मुसाहिब बन के इतराना और काम से मुंह चुराना चाहता था.कर नहीं पाया.इसलिए अपने काबिल मित्रों की शिकायत भी नहीं करता.मेहनत के बल पर अपने आर्थिक हालात बेहतर करने का हौसला देर तक कायम रखा, लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता.मेरे मामले में भी नहीं हुआ.नतीजा, फाकेमस्ती ना सही लेकिन गुरबत का दौर आज भी जारी है.अपने सुबहो शाम अपने काम के नाम करके, गधा बन गया हूं.हालाकि इसी काम की बदौलत कई गधे सफलता के शिखर पर हैं.खैर ये तो अपनी अपनी काबिलियत और किस्मत की बात है.मेरे दिन नहीं फिरे, ना सही.लेकिन तब इस शहर में होने का औचित्य क्या है.खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए...सवाल ये है कि किताबों ने क्या दिया मुझको.कुछ नहीं.एक बेहद अतार्किक और बेमकसद सी जिन्दगी.दोस्तों इसी जिन्दगी से भागना चाहता हूं.पहली बार हालात से भागना चाहता हूं.मैं गांव लौट जाना चाहता हूं,अपने खेतों में जहां किसी ने, कभी गुलाब की फसल उगाने की कामना की थी.यकीन कीजिए गुलाब, खबरों से ज्यादा अहमियत रखते हैं (घोर निराशा के मूड में)
शुक्रवार, 1 मई 2009
मुद्दाविहीन चुनाव, लहर और जनसरोकार
अभी एक टेलिविजन डेवेट देख रहा था जिसमें राजदीप, आशुतोष. योगेंद्र यादव और श्रवण गर्ग भाग ले रहे थे। जाहिरन मुद्दा लोकसभा चुनाव ही था और बात घूमफिर वहीं आ अटकी थी कि चुनाव के बाद क्या होनेवाला है। एक बिन्दु पर लगभग सभी सहमत थे कि ये चुनाव मुद्दाविहीन चुनाव है और इसी वजह से किसी तरह की अटकलवाजी गलत हो सकती है। राजदीप ने कहा कि चुनाव में थोड़ाबहुत मुद्दा है तो वो महंगाई और आर्थिक मंदी है लेकिन मूलत: बड़े पैंमाने पर ये चुनाव लोकल इश्यूज पर लड़े जा रहे हैं। बिहार का मुद्दा अलग है कर्नाटक का अलग, यहां तक कि उत्तरी और दक्षिणी मुम्बई का मुद्दा भी अलग-अलग है। एक विद्वान का कहना था कि ये भी अपने आप में चिंता की बात है कि राजनैतिक परिपक्वता की ओर अग्रसर इतना बड़ा मुल्क एक राष्ट्रीय मुद्दा तक नहीं खोज पाया है। लेकिन इसके उलट भी कई तर्क हैं जो काफी मजबूत हैं।
ये कहना कि देश में राष्ट्रीय मुद्दों का अकाल हो गया है, सच से मुंह चुराना होगा। जिस देश की एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती हो, जिस देश में सिर्फ सस्ता अनाज उपलब्ध करवा कर वोट बटोरे जा सकते हों वहां मुद्दों का अभाव होना दरअसल कुछ खतरनाक इशारा करता है। सच्चाई तो ये है कि हमारे पास उतना कद्दावर नेतृत्व नहीं है जो कई बड़े मुद्दे को अपनी शख्सियत और पार्टी की विचारधारा में समेट सके। एक मुल्क के तौर पर यह हमारी बड़ी नाकामी है कि हमें औसत किस्म के सियासतदानों में से एक को अपना रहनुमा चुनना है।
दूसरी बात ये आजादी के कुछ ही दिनों के बाद से जब हमारे सपने टूटकर बिखरने लगे थे, हमने नकली मुद्दों की तरफ चुनाव को झोंकना शुरु कर दिया। जबसे हमने लहरों के आधार पर अपना वोट देना शुरु किय़ा हमारे नेतृत्व का दिवालियापन सामने आने लगा। मुझे लगता है कि ये साल इकहत्तर में भी हुआ जब हमने बंग्लादेश युद्ध के बाद फिर से इंदिराजी को चुना था, यहीं सन 84 में भी हुआ जब उनकी मौत के बाद राजीव गांधी गद्दीनशीं हुए थे। ऐसा सन् ൯൧ में भी हुआ और उसके बाद तो ये ൯൯ तक हुआ। दरअसल, हमारी चालाक सियासी पार्टियों ने जरुरी मुद्दों से हमें भटकाने के लिए लहर का ढ़ोंग रचा ताकि हम सवाल उठाना बंद कर दें। ये चुनाव इस मायने में काफी अच्छा है जब हम लाख बहकावे के बावजूद अपने मुद्दों के आधार पर-चाहे वो कईयों की नजर में कितने ही तुच्छ क्यों न हों-वोट कर रहे हैं।
दूसरी बात जो अहम है वो ये कि राष्ट्रीय मुद्दे या लहर जैसी बात बड़ी पार्टियों के हक में जाती है। यहां ये लिखने का मतलब बड़ी पार्टियों का विरोध नहीं है बल्कि इतना जरुर है कि छोटी पार्टियों के आने से लोकतंत्र ज्यादा मजबूत, जनापेक्षी और जवाबदेह बना है। हलांकि शुरुआती दौर में इसमें कुछ गिरावटें देखने को मिल सकती है लेकिन ऐसा तो हर विकासशील व्यवस्था में अनिवार्य होता है। हमें याद है कि कांग्रेस की बहुमत के जमाने में किस तरह सूबों के काबिल और जनाधारवाले नेताओं को ऊपर उठने का मौका नहीं मिलता था। आज ऐसी स्थिति नहीं है। हां, इससे बड़ी पार्टियां भी सीख ले रही है कि विराट और आभामंडल से घिरा हुआ नेतृत्व अब काबिल और लोकप्रिय नेताओं की अनेदेखी से बच रहा है।
कुल मिलाकर चुनाव ऐसी डगर पर चल पड़ा है जहां बड़े करीने से गढ़े गए लोकलुभावन चेहरे और नकली मुद्दों-जिन्हे राष्ट्रीयता का चोला पहना दिया जाता था-की अहमियत कम हुई है। हमारे यहां राष्ट्रीय छवि, मुद्दों और अपील को बड़ी चतुराई से घालमेल कर देने की परंपरा रही है, और वोटर इसबार इससे मुक्त होता हुआ दिखता है। राष्ट्रीय अपील का मतलब खूबसूरत चेहरे, खानदान, भावुकता और उन्माद न होकर जनसरोकारों की बात करनेवाली आवाज होनी चाहिए-जो फिलहाल तो नहीं दिख रही, लेकिन हो तो बेहतर है।
ये कहना कि देश में राष्ट्रीय मुद्दों का अकाल हो गया है, सच से मुंह चुराना होगा। जिस देश की एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती हो, जिस देश में सिर्फ सस्ता अनाज उपलब्ध करवा कर वोट बटोरे जा सकते हों वहां मुद्दों का अभाव होना दरअसल कुछ खतरनाक इशारा करता है। सच्चाई तो ये है कि हमारे पास उतना कद्दावर नेतृत्व नहीं है जो कई बड़े मुद्दे को अपनी शख्सियत और पार्टी की विचारधारा में समेट सके। एक मुल्क के तौर पर यह हमारी बड़ी नाकामी है कि हमें औसत किस्म के सियासतदानों में से एक को अपना रहनुमा चुनना है।
दूसरी बात ये आजादी के कुछ ही दिनों के बाद से जब हमारे सपने टूटकर बिखरने लगे थे, हमने नकली मुद्दों की तरफ चुनाव को झोंकना शुरु कर दिया। जबसे हमने लहरों के आधार पर अपना वोट देना शुरु किय़ा हमारे नेतृत्व का दिवालियापन सामने आने लगा। मुझे लगता है कि ये साल इकहत्तर में भी हुआ जब हमने बंग्लादेश युद्ध के बाद फिर से इंदिराजी को चुना था, यहीं सन 84 में भी हुआ जब उनकी मौत के बाद राजीव गांधी गद्दीनशीं हुए थे। ऐसा सन् ൯൧ में भी हुआ और उसके बाद तो ये ൯൯ तक हुआ। दरअसल, हमारी चालाक सियासी पार्टियों ने जरुरी मुद्दों से हमें भटकाने के लिए लहर का ढ़ोंग रचा ताकि हम सवाल उठाना बंद कर दें। ये चुनाव इस मायने में काफी अच्छा है जब हम लाख बहकावे के बावजूद अपने मुद्दों के आधार पर-चाहे वो कईयों की नजर में कितने ही तुच्छ क्यों न हों-वोट कर रहे हैं।
दूसरी बात जो अहम है वो ये कि राष्ट्रीय मुद्दे या लहर जैसी बात बड़ी पार्टियों के हक में जाती है। यहां ये लिखने का मतलब बड़ी पार्टियों का विरोध नहीं है बल्कि इतना जरुर है कि छोटी पार्टियों के आने से लोकतंत्र ज्यादा मजबूत, जनापेक्षी और जवाबदेह बना है। हलांकि शुरुआती दौर में इसमें कुछ गिरावटें देखने को मिल सकती है लेकिन ऐसा तो हर विकासशील व्यवस्था में अनिवार्य होता है। हमें याद है कि कांग्रेस की बहुमत के जमाने में किस तरह सूबों के काबिल और जनाधारवाले नेताओं को ऊपर उठने का मौका नहीं मिलता था। आज ऐसी स्थिति नहीं है। हां, इससे बड़ी पार्टियां भी सीख ले रही है कि विराट और आभामंडल से घिरा हुआ नेतृत्व अब काबिल और लोकप्रिय नेताओं की अनेदेखी से बच रहा है।
कुल मिलाकर चुनाव ऐसी डगर पर चल पड़ा है जहां बड़े करीने से गढ़े गए लोकलुभावन चेहरे और नकली मुद्दों-जिन्हे राष्ट्रीयता का चोला पहना दिया जाता था-की अहमियत कम हुई है। हमारे यहां राष्ट्रीय छवि, मुद्दों और अपील को बड़ी चतुराई से घालमेल कर देने की परंपरा रही है, और वोटर इसबार इससे मुक्त होता हुआ दिखता है। राष्ट्रीय अपील का मतलब खूबसूरत चेहरे, खानदान, भावुकता और उन्माद न होकर जनसरोकारों की बात करनेवाली आवाज होनी चाहिए-जो फिलहाल तो नहीं दिख रही, लेकिन हो तो बेहतर है।
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