बुधवार, 19 मई 2010

पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

जैसा कि हम जानते हैं, हमारे देश में गृह-मंत्रालय भी है। मंत्रालय है तो मंत्री हैं। मंत्री काबिल हैं और कमाल के हैं लेकिन परेशान हैं । उनकी बात किसी के समझ में नहीं आती। आम आदमी तो खैर उनकी जबान क्या समझेगा, चिदंबरम भद्र राजनेताओं के भी पल्ले नहीं पड़ते। इधर राजनीति में जुमलेबाजी का दौर है । एक जुमला चिदंबरम पहले ही मार चुके हैं – बक स्टॉप विद...। अब कहते हैं कि उनके पास नक्सलवाद से लड़ने के लिए पर्याप्त मैंडेट नहीं है । जाहिर है एक बार फिर आम आदमी के समझ में ये मुहावरा भी नहीं आने वाला है। लेकिन अरुण जेटली ने फटाफट समझ लिया। समझ लिया इसलिए देर न करते हुए, चिदंबरम पर एक जबरदस्त जुमले से वार किया । घायल शहीद। चिदंबरम चारो खाने चित्त । कहते रहे कि इन शब्दों का चयन बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है । अब गृहमंत्री को कौन समझाये कि बक स्टॉप विद चीफ मिनिस्टर वाला जुमला भी दुर्भाग्यपूर्ण था । देखा जाए तो सारा दोष भाषा और मुहावरों का है । कुछ दिन पहले जब शशी थरूर ने कैटल क्लास वाला जुमला इस्तेमाल किया था तो कढ़ी में उबाल आ गया था ( क्या मुहावरा है )। इधर संसद में मणिशंकर ने जुमले के तौर पर जेटली को जब फासिस्ट कहा तो राज्यसभा में बवाल हो गया । ये तो फिर भी अंग्रेजी के जुमले हैं, ज्यादातर लोगों के अर्थ समझते समझते असर खो देते हैं । हिन्दी के मुहावरों का क्या असर होता है , ये कोई लालू और मुलायम से पूछे । गडकरी ने मातृभाषा के एक मुहावरे में दोनों को कुत्ते की तरह तलवे चाटने वाला कहा । हंगामा होना ही था ,और खुब हुआ। कुत्ते का जातीय चरित्र ही ऐसा है, वरना किसी को शेर कहने पर वो कतई बुरा हीं मानता । मुहावरे में शेर को जानवर नहीं मानते, लेकिन कुत्ता फिर भी कुत्ता ही बना रहता है। बेचारा । फिलहाल देश की राजनीति ऐसे ही जुमलों के सहारे चलती लगती है । गृहमंत्री शायद नक्सलियों के खिलाफ एयर फोर्स के बारे में सोच रहे हैं लेकिन दिग्विजय सिंह इस बात से घोर असहमत हैं । दिग्गी राजा फरमाते हैं कि सुरक्षा बलों को उतारने के लिए हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन एयर फोर्स का नहीं । ये जुमला नहीं है और राजनीति भी नहीं इसलिए हमारे किसी काम की नहीं । जुमला तो कांग्रेस के केशव राव ने मारा है--नक्सलियों के मामलें में पहले विकास फिर बात और आखिर में कार्रवाई । सर जी जुमला तो बड़ा जबरदस्त है लेकिन काफी पुराना है। गृहमंत्री के ग्रीन हंट जुमले की टक्कर में कहीं नहीं टिकता । खैर संजीदा मसलों पर नेताओं की जुमलेबाजी तो हम देख सुन रहे हैं, लेकिन अहम सवाल अपनी जगह है। मुक्तिबोध की शैली में हमें भी पूछना है , पार्टनर मुहावरे को जाने दो तेल लेने तुम बताओ तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

शुक्रवार, 14 मई 2010

जलेबी का समाजवाद

मेरे जीवन में एक ऐसा वक्त आ गया है
जब खोने को
कुछ भी नहीं है मेरे पास
दिन, दोस्ती, रवैया
राजनीति
गपशप, घास
और स्त्री हालॉकि वह बैठी हुई है
मेरे पास... ( श्रीकांत वर्मा )
...मैं भी कह सकता हूं यह बात । अव्वल तो कई चीजे कभी हासिल नहीं हुई। कुछ मिलने के बाद खो गईं । फिर भी, जो शेष है उससे आसक्त नहीं हूं । सिवाय जलेबी के । जलेबी के साथ रोमांस बचपन में शुरू हुआ । जवानी तक चला आया है । मां मीठा कम खाने की हिदायत देती रहती हैं, लेकिन कमबख्त जलेबी से नजर आज भी नहीं चुरा पाता । हफ्ते में कम से कम दो बार चख लेता हूं । दिल्ली के मुखर्जी नगर इलाके में जहां रहता हूं , वही गली के मोड़ पर जलेबी की एक दुकान है । माफ कीजिए , मुझे सच बोलना चाहिए । एक जलेबी बनाने वाले का ठेला है । दिन ढ़लने से पहले यूपी के गोरखपूर का रहने वाला श्याम अपनी दुकान ( ठेला ) सजा लेता है । मैदा के घोल वाले बड़े कनस्तर, एक कम गहराई वाली कड़ाही, चिमटे – चुल्हा और एक छोटू । काम की तलाश में गांव से श्याम के साथ ही चला आया है छोटू । दुकान लगने की देर भर होती है कि देखते- देखते ग्राहक ठेले पर टूट पड़ते हैं । ग्राहक यानि मुखर्जी नगर में रहने वाले प्रवासी छात्र और छात्राएं— इनमें से कई कल के बड़े आईएएस अधिकारी हैं । दुकान पर विधार्थियों की तादाद ज्यादा होती है क्योंकि आर्थिक पैमाने पर जलेबी उनकी जेब को भी पसंद आती है । पांच रुपए की जलेबी में स्वाद भी आ जाता है, शाम भी कट जाती है । एक तबका और है रिक्शा चालकों का और आसपास मजदुरी करने वालों का । दिन भर की मेहनत के बाद सुस्ताने के नाम पर ठंढा पानी पीने के लिए , मीठी जलेबी बड़ी कारगर होती है । रस में डूबी हुईं, गरम-गरम करारी जलेबियां जो सुख देती है , उसे थके हुए चेहरों पर देखा जा सकता है, बयान नहीं किया जा सकता । इस तरह महानगर में आए दूर कस्बे - देहात के नौजवान हों या मजदुर , जलेबी दोनो को बेहद पसंद है । श्याम के ठेले पर कार से उतर कर जलेबी लेने वाले भी अच्छी तादाद में आते हैं और मम्मियों का हाथ पकड़े छोटे बच्चे भी । सभी एक दुसरे के बगल में खड़े होकर मजे से जलेबियां खाते हैं। पढ़ी लिखी नौजवान पीढ़ी को किसी रिक्शेवाले के बगल में खड़ा होकर जलेबी खाने में कोई गुरेज नहीं होता । कार वालों को मजदुरों से घिन नहीं आती। । देश की सबसे सस्ती मिठाई, अपनी चासनी में सबको एक साथ डूबा लेती है । महानगर में गली- गली मिठाई की ब्रांड दुकाने हैं ,लेकिन क्या ऐसा नजारा वहां मुमकिन है? अगर देखा जाए तो मुखर्जी नगर ही क्यों , कहीं भी जलेबी का ठेला समाजवाद का अनोखा प्रतीक है । एक स्वाद जो सबके लिए है और सबको मयस्सर है ।
और आखिर में फैज साहब का एक शेर –
आस उस दर से टूटती नहीं
जाके देखा,न जाके देख लिया

गुरुवार, 6 मई 2010

धंधे का मास्टर स्ट्रोक

 प्रभात रंजन
गरीबी का अपना एक अलग सौन्दर्य होता है- ऐसा सुना है । आजकल देख रहा हूं । सौन्दर्य भी ऐसा कि कलेजा मुंह को आता है और हाथ हड़बड़ाहट में कलेजे तक जाता है। पूरा मोहल्ला उसे देखने की बाट जोहता रहता है। दिख जाए तो आफत ना दिखे तो आफत । बस यूं समझें कि "कमबख्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह" - जैसी पोज में मोहल्ला पलक- पावड़े बिछाए रहता है ।
अब आगे की कहानी फ्लैश बैक में.....
महीने भर पहले हमारी गली के आखिरी मकान के आगे, कपड़े आयरन करने की एक दुकान खुली।मोहल्ले में पहले से एक दुकान थी । इकलौती दुकान धड़ल्ले से चलती थी। नई दुकान खुलने का बाद भी पुरानी पर कोई असर नहीं पड़ा क्योंकि लोगों को उसकी आदत पड़ चुकी थी । कपड़े धुलते रहे , पुरानी दुकान पर आयरन होते रहे और नई दुकान पर मक्खियां उड़ती रहीं । कई दिनों तक । लेकिन बेहद गर्मी के बाद जैसे बारिश के आने से मौसम बदल जाता है , हमारे मोहल्ले की फिजा भी बदली । एक दिन सुबह – सुबह ही कुछ जगे कुछ सोये लोगों की कान में एक मधुर आवाज पड़ी। आयरन के लिए कपड़े दे दो भैया....बाऊजी...अम्मा...भाभी...कपड़े दे दो । मोहल्ला एक झटके से निंद से जागा । आंखे खोलकर उसे देखा और बस देखता रह गया । कमर कुछ ज्यादा ही मटकाते और एड़ियों से धूप उड़ाते, उसने पल भर में पूरे मोहल्ले का मुआयना कर लिया। नई भाभियों के दिल में तलवार की तरह धंसी तो पुराने भाईयों के दिल में उतर गई । तुरंत ही पता चल गया कि मोहतरमा आयरन करने वाली नई दुकान की मालकिन हैं । और ये भी कि आइन्दा दुकान इनकी देख रेख में ही चलेगी । इस सूचना को मोहल्ले ने खुले दिल से स्वीकार किया । कपड़ो के गठ्ठर ने अपना रास्ता बदल लिया। मैडम की तिरछी नजर जिस पर भी पड़ी- भाई, अंकल या बाऊजी -वो उनका स्थायी कंज्यूमर हो गया। अब धुले कपड़ो के लेन देन में अदाओं का कारोबार चलता है । नई दुकान खूब चलती है। पुरानी शायद जल्दी ही बंद हो जाएगी। कहना होगा कि बिजनेस का ये मास्टर स्ट्रोक है , जिसका इस्तेमाल अभी तक बहुराष्ट्रीय कंपनियां और बड़ी दुकान वाले करते थे। छोटे कारोबारियों को भी इसकी समझ हो रही है । बहरहाल तमाशा है , मजा लीजिए। अचानक ,बेवजह कुछ भी नहीं होता  ( अचानक सिर्फ फूल खिलते हैं और बेवजह सिर्फ गधे दुलत्ती मारते हैं )। मुद्दे की बात -  धंधे के लिए मार्केटिंग की समझ हो तो  नई दुकान भी झट से चल पड़ती है । और जैसा कि चचा गालिब भी कह गए हैं,  शाह का मुसाहिब होना खराब बात नहीं होती। ये कला आती हो तो आपका खोटा सिक्का भी खन- खन करता है ।