इस मुलाकात से भले ही इतिहास नहीं बदला जा सकता लेकिन, इंसानियत का चेहरा कुछ निखर सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बेटी जेल में अपने पिता के कातिल , नलिनी श्रीहरन से मिली । नलिनी से प्रियंका की इस मुलाकात ने , किसी मसले को हल नहीं किया लेकिन गुस्से और तकलीफ से आहत दिलों को आराम जरूर देगी । प्रियंका ने कई सवाल पूछे – ऐसे कई सवाल जिनके जवाबों की दरकार नहीं थी लेकिन शायद चुप्पी तोड़ने का कोई और रास्ता नहीं रहा हो। प्रियंका 17 साल पुरानी अपनी लड़ाई को खत्म करने का इससे बेहतर जरिया नहीं तलाश सकती थी । और नलिनी पश्चताप का इससे बेहतर मौका। कानून ने तो सिर्फ अपराध की सजा दी लेकिन प्रियंका ने नलिनी की आत्मा पर लगे दागों को कुछ हल्का करने का प्रयास किया है । सार्वजनिक या राजनीतिक तमाशे से दूर प्रियंका ने अपने पिता के कातिल से कहा कि वे एक अच्छे इंसान थे और नलिनी ने बताया कि अनाथ होने के कारण उसने कभी प्यार नहीं पाया । और शायद इसी लिए थोड़ी सी सहानुभूति दिखा कर उसे राजीव हत्याकांड में शामिल कर लिया गया । हांलाकि उसे इन सबके पिछे मौजूद असली चेहरे का पता नहीं है। अब शायद इतना कह भर देने से नलिनी के लिए सांस लेना कुछ आसान हो जाए। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या वाकई नलिनी को कुछ पता नहीं है और क्या प्रियंका भावनाओं की आड़ में अपने पिता की हत्या में शामिल ऐसे लोगों की पहचान करने गई थी , जो अब तक बेनकाब है।
प्रियंका का चाहे जो भी मतलब हो -- ये मुलाकात नलिनी के लिए काफी मायने रखती है।
मंगलवार, 15 अप्रैल 2008
सोमवार, 14 अप्रैल 2008
सहयात्री
बर्दाश्त करना है
क्योंकि नांव छोड़ी नहीं जा सकती
नदी के बीचो – बीच।
नांव पर सवार
आकाश की ओर मुंह उठाये
रेकियाते/जैसे ईश्वर को गरियाते
सहयात्री, इन गदहों को (गधों को)
पार उतरने तक बर्दाश्त करना है
चोट सहना भी विवशता
चुपचाप
कौन सिर्फ प्रतिशोध के लिए मारेगा दुलत्ती
किसी गदहे को।
क्योंकि नांव छोड़ी नहीं जा सकती
नदी के बीचो – बीच।
नांव पर सवार
आकाश की ओर मुंह उठाये
रेकियाते/जैसे ईश्वर को गरियाते
सहयात्री, इन गदहों को (गधों को)
पार उतरने तक बर्दाश्त करना है
चोट सहना भी विवशता
चुपचाप
कौन सिर्फ प्रतिशोध के लिए मारेगा दुलत्ती
किसी गदहे को।
गुरुवार, 3 अप्रैल 2008
मेरा होना ----
कुछ कहने की अकुलाहट और चुप रहने की बेबसी के बीच में . एक शाम है . घर की ओझल दीवार में कहीं दहलीज की तरह. और एक मैं हूं.
मैं भी हूं. बने रहने की जरूरत और खत्म होने की बैचेनी के साथ. जैसे ये शहर है . होने और ना होने की पूरी सार्थकता के साथ .
पेड़ की फूनगियों पर रहेगी धूप . आखिर तक . कि जैसे आंखों में रहती हैं उम्मीद. और कभी सर्दियों मे कीचड़ . आखिरकार पोंछ दिए जाने तक . मैं भी रहूंगा .
मेरा होना ठीक वैसे नहीं कि, जैसे पिछली सदी की आखिरी कविता में मौजूद था एक आदमी. प्रेमिकाओं के पहने हुए गहने की तरह मेरा मूल्य है. सुखद स्मृतियॉ नहीं . बेहद तकलीफ में याद किए जाने वाले गुनाहों की तरह, क्षमा – प्रार्थनाओं में रहता हूं.
मेरा होना , भाषा में गाली होने की तरह अनिवार्य . मगर अवांछित.
मैं हूं - किसी ढ़ही हुई इमारत की कीमती जमीन की तरह .
मैं भी हूं. बने रहने की जरूरत और खत्म होने की बैचेनी के साथ. जैसे ये शहर है . होने और ना होने की पूरी सार्थकता के साथ .
पेड़ की फूनगियों पर रहेगी धूप . आखिर तक . कि जैसे आंखों में रहती हैं उम्मीद. और कभी सर्दियों मे कीचड़ . आखिरकार पोंछ दिए जाने तक . मैं भी रहूंगा .
मेरा होना ठीक वैसे नहीं कि, जैसे पिछली सदी की आखिरी कविता में मौजूद था एक आदमी. प्रेमिकाओं के पहने हुए गहने की तरह मेरा मूल्य है. सुखद स्मृतियॉ नहीं . बेहद तकलीफ में याद किए जाने वाले गुनाहों की तरह, क्षमा – प्रार्थनाओं में रहता हूं.
मेरा होना , भाषा में गाली होने की तरह अनिवार्य . मगर अवांछित.
मैं हूं - किसी ढ़ही हुई इमारत की कीमती जमीन की तरह .
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