शनिवार, 17 मई 2008

तेरी याद में

गोपी कृष्ण सहाय

चले गए तब ज्ञात हुआ , अपना खोना क्या होता है !
याद में तेरे साथी मेरे , घर आंगन भी रोता है !!
वही आंगन ढ़ूढते थे तुम , मै कहीँ छुप जाता था
कई सवाल पूछोगे ये , सोच नजर चुराता था !!
बड़े जटिल लगते थे , प्रश्न तेरे सीधे सादे !लौट के ना आओगे तुम , इस मन को समझाता हूँ !
पर तेरी यादों की दस्तक , हर कोने मे पाता हूँ !!
माना अब हमने तेरे बिन , मुस्कुराना सिख लिया !
वक्त के साथ अकेले ही , कदम मिलाना सिख लिया !!
अगले जनम तुमको इश्वर , फिर हमसे ही मिलवादे !

1 टिप्पणी:

मिथिलेश श्रीवास्तव ने कहा…

वाह भाईसाब वाह, दर्द के गुबार पर गुबार िनकल रहे हैं....ये दर्द के अनुबंध ताजा ताजा हैं या....सालों पुराना जख्म अब हरा हो गया है....