बुधवार, 21 अप्रैल 2010

उफ ये तेरी हठधर्मिता

आजकल विनोद जी को पढ़ रहा हूं । खिलेगा तो देखेंगे । मौजूदा दौर में अपनी भाषा की ताकत का एक उदाहरण राग दरबारी है।अरूण कमल जी की पंक्तियां याद आ रही है कि भाषा की सभी हड्डियां चटका के शुक्ल जी ने रागदरबारी की भाषा का ईजाद किया है । यकीनन रागदरबारी अपनी भाषायी उपलब्धियों में बेजोड़ है। लेकिन विनोद जी के यहां मुहावरे पर जोर नहीं है,जोर है बिम्ब पर । गध में कविता जैसे बिम्बों की रचना विनोद जी की अपनी खासियत है । इससे पहले 'दीवार में खिड़की'को पढ़ते हुए भी अपनी भाषा की अनदेखी खूबसूरती मुग्ध कर गई थी। विनोद जी निश्चित रूप से प्रेमचंद की उस परंपरा के हिस्से हैं जिसमें सीधी- सादी सरल भाषा के माध्यम से जादू जगाने का काम किया जाता है । तत्सम और सामासिक शब्दों के बजाय ठेठ गंवारी बोली से सृजनात्मकता कैसे होती है , ये नागार्जुन के यहां भी देखा जा सकता है और त्रिलोचन के यहां भी। नामवर सिंह की एक बात याद आती है कि जनकवियों की कविताएं देखने में बड़ी सहज और आसान लगती है लेकिन अगर लिखने चलिए तो आटे दाल का भाव पता चल जाता है । खैर भाषा को लेकर बात इसलिए छेड़ी है कि, मैं जिस पेशे में हूं वहां भी भाषा को लेकर बड़े बवाल हैं । हुआ यूं कि कल एक स्क्रीप्ट पर नजर पड़ी जिसमें 'हठधर्मिता' जैसे शब्दों का सयास इस्तेमाल किया गया था । बाद में पता चला कि लिखने वाले सज्जन अब तक प्रिंट मीडिया से ताल्लुक रखते थे और अभी अभी इलेक्ट्रानिक मीडिया की गलीज दूनिया में कदम रखा है । बड़े पद पर हैं और रसूख रखते हैं । मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर उनका, उनकी हठधर्मिता की ओर ध्यान दिलाया जाए तो उनका कहर टीवी की वाहियात भाषा पर टूट पड़ेगा । शायद कह दें कि हम टीवी वालों को भाषा आती ही नहीं । असल, सवाल ये है कि प्रिंट में भी ऐसे शब्दों के इस्तेमाल का क्या तुक है जबकि पत्रकारिता के ककहरे में ये बात समझाई जाती है कि भाषा आसान और पंक्तियां छोटी होनी चाहिए । देश के सभी बड़े पत्रकार , चाहे प्रिंट के हो या टीवी के , सहज-सरल भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं । संप्रेषण में सुविधा होती है । और जहां तक बात है विद्वान टाइप लोगों की तो , मैं फिर से नामवर जी की पंक्तियां दुहराना चाहूंगा कि पहले आसान भाषा में लिख कर दिखाइए- आटे दाल का भाव पता चल जायेगा । एक बात और , अच्छा लिखने के नाम पर तत्सम शब्द और संयुक्त वाक्यों का इस्तेमाल करने वाले लोगो की जमात अकेली नहीं है । एक और जमात है , खासकर के टीवी की दूनिया में, जो सयास उर्दू के कठिन अल्फाजों का इस्तेमाल करती है । इनका भी मानना है कि फकत उर्दू के इस्तेमाल से स्क्रीप्ट जबरदस्त हो जाती है । भले ही उसके मायने न लिखने वाले के समझ में आए और ना सुनने वाले के । भाई लोग साठ सत्तर की हिन्दी फिल्मों की तरह उर्दू को टीवी के लिए बड़ी जरूरी चीज समझते हैं । और लिखते जा रहे हैं । दोनो जमातों को नसीहत देने का मेरा कोई इरादा नहीं ।आसान भाषा में गंभीर बात कहने की ,या कह सकने की कला अगर वाकई सिखनी हो तो हरिशंकर परसाई को पढने की नसीहत जरूर दूंगा ।

2 टिप्‍पणियां:

डॉ .अनुराग ने कहा…

महत्वपूर्ण बात है कंटेंट ...हाँ एक शानदार किस्सागो किसी साधारण से किस्से को दिलचस्प बना सकता है ओर यही एक अच्छा लिखने वाले को दूसरो से अलग करता है

सुबोध ने कहा…

लिखने सोचने का कोई पैमाना नहीं होता। इसी का फायदा लोग उठाते हैं। कोई भी कभी भी किसी बड़े विद्वान को झटके में खारिज कर देता है। पांच छह शब्दों के वाक्य लिखना बेहद मुश्किल काम है। बहस इस बात पर भी होनी चाहिए कि हमारे कितना क्लिष्ट और आसान शब्दों के लिखने की सीमा क्या हो