कमबख्त, ऐसी हालत में भी राधिका- राधिका चिल्ला
रहा है। उम्र कोई 22 साल की होगी। अभी थोड़ी देर पहले मैक्स अस्पताल में इसे लाया गया
है। वह जो बदहवास सा दिख रहा है, शायद भाई है इस लड़के का। पलक झपकते डॉक्टर्स की
पूरी टीम उसके इलाज में लग गई है। एक डॉक्टर ने घुटना उसके पेट से लगा रखा है।
दूसरा डॉक्टर मुंह में पतला तार डालने की कोशिश कर रहा है। “क्या
खाया है ?”- सीनियर डॉक्टर जरा गुस्से में पूछते हैं।“राधिका नहीं
आई ?” उस पर जैसे जुनून तारी है।–“राधिका तो नहीं
आयेगी बेटा..पुलिस आ रही है..जल्दी बता क्या खाया है?”—“घर
में ढ़ेर सारे कॉम्बीफ्लेम और पैरासिटामोल के टेबलेट रखे थे, सब खा लिए”।–
“यू डफर”- । सीनियर डॉक्टर की आवाज चीखने की हद तक तेज हो
जाती है। -- “उल्टी कराओ इसकी फास्ट”।– “राधिका-
राधिका”। “चुप हो जा नहीं तो मार खायेगा”- इस बार भाई बोलता है। डॉक्टर को तसल्ली नहीं है- “किसी
को घर भेजो...पता करो इसने कुछ और तो नहीं खाया...जल्दी करो”। थोड़ी देर
में घबराई हुई एक महिला आती है- मां हैं शायद। “
चिंता की बात नहीं है...हम पेट से दवाईयां निकाल रहे हैं...हां अगर इसने कुछ और
खाया हो तो...देखते हैं”। तीन घंटे बाद डॉक्टर्स थोड़े निश्चिंत दिखाई दे
रहे हैं। “पागल है यार…गर्लफ्रेंड से मामूली झगड़ा हो गया...बात
भी क्या थी...कहीं डेट-वेट पर जाने से उसने इँकार कर दिया था..लड़के ने कारनामा कर
दिया..ठीक है अब”। अस्पताल में डेंगू के मरीजों का तांता लगा है।
मेरे दोस्त भी पड़े हुए हैं। कमीना, अपनी मेहबूबा को प्रेम और प्लेटलेटस का फंडा
समझा रहा है। कहता है- “तुम्हे देखता रहूं तो डेढ़ घंटे में प्लेटलेटस
डेढ़ लाख हो जायेगा”। आज के दिन की शुरुआत ही खराब हुई है। अस्पताल आने
के लिए वैशाली से ऑटो में चढ़ा। ऑटो में राष्ट्रकवि समीर द्वारा रचित एक महान
रोमांटिक गाने को मुन्ना अजीज और अनुराधा पौडवाल, भांय-भांय गा रहे थे। ड्राईवर
नौजवान था,इसलिए उसकी नजर बार- बार एक किनारे बैठी नायिका की ओर फिसल रही थी।
पट्ठे ने एक मोड़ पर वो धक्का मारा कि सब कुछ टूटते-टूटते बच गया। अस्पताल से लौटा
हूं...सही सलामत।
सोमवार, 15 अक्तूबर 2012
गुरुवार, 27 सितंबर 2012
अपना भाई है रंजीत
रंजीत नाम है इस छोकरे का। पंद्रह - सोलह से ज्यादा की उम्र नहीं होगी । कद अच्छा निकला है लेकिन चेहरे से बचपन की मासूमियत अभी जाने का नाम नहीं ले रही। सड़क के किनारे वो जो चाय की दुकान है ना...हां वहीं जहां भीड़ सी लगी रहती है, रंजीत की है। रंजीत की मां दुकान चलाती है और रंजीत चाय की डिलिवरी करता है। माने ये कि यहां आसपास जितने ऑफिस हैं , वहां ठीक समय पर चाय लेकर पहुंचाता है। चपरासी से लेकर चेयरमैन तक सभी जानते हैं रंजीत को। बड़ा ही प्यारा लड़का है। अपने काम से बड़ा लगाव है रंजीत को। वैसे तो सभी ग्राहकों का ध्यान रखता है, लेकिन सामने ये जो न्यूज चैनल का ऑफिस है ना, उससे रंजीत को बड़ा जुड़ाव है।वहां अंदर जाने के लिए उसे परमिशन की जरुरत नहीं पड़ती। चाय की केतली ली और सीधे घुस गया। सुबह- दोपहर- शाम, तीनों वक्त की चाय। लड़को को भैया कहता है और लड़कियों को मैडम।लेकिन ये सब तो पुरानी बात हो गई। कुछ दिन पहले ये ऑफिस बंद हो गया न। बारी- बारी से सभी चले गए। ऑफिस के सभी लोग जाते हुए रंजीत से मिलकर गए, अपना फोन नंबर दिया, आते रहने का वादा भी किया। जिन्दगी की आपाधापी में कोई रंजीत को देर तक याद रखेगा, ऐसा नहीं लगता। लेकिन रंजीत को सभी याद हैं। पुराने लोग जब कभी पीएफ- तीएफ का काम कराने लोग आते हैं तो रंजीत इसरार करके चाय पिलाता है और पैसे नहीं लेना चाहता। धंधा तो अब भी अच्छा चल रहा है, लेकिन पता नहीं कैसी उदासी इस बच्चे के चेहरे पर आ गई है। कोई कहता है कि न्यूज चैनल में काम करने वाली किसी लड़की से इसे प्यार- व्यार हो गया था। अच्छा, तभी तो दिन भर में ऑफिस के तीन- चार चक्कर लगा लेता था। कोई छेड़ता था तो शरमा जाता था, और मुस्कुरा कर चाय की उबाल देखने लगता था। हूं...ठीक कहते हो... लेकिन कौन थी वो लड़की ? छोड़ो यार, तुम तो पीछे ही पड़ गए।लड़के का पहला प्यार थी, बस इस बात से वास्ता रखो। और इससे कुछ सिखो...पहले प्यार में दिल टूटा लेकिन तुम्हारी तरह देवदास बनकर नहीं बैठ गया।मुस्कुराता रहा, हमें- तुम्हें, सबको चाय पिलाता रहा। तुम होते साले तो शायर हो गए होते अबतक ।पट्ठे को एक दिन हमने छेड़ा तो हमें समझा गया- बोला, भैया हम तो आज भी प्यार करते हैं, वो हमसे बात करती थी, इतना ही बहुत था । समझे बेटा । अब जल्दी से चाय सुड़को और चलो। अबे पैसा तो दे दो चाय का ।" पैसा रहने दो प्रभात भैया...आपने सुना, यहां बगल में ही, तीन मकान छोड़कर, एक नया चैनल खुल रहा है...हां काम चल रहा है...मैं तो देखकर आया हूं...आप न सबको बता दो...जितने भी पुराने लोग हैं, सबकी नौकरी यहां हो जायेगी...फिर सब पहले जैसा हो जायेगा...अच्छा लगेगा, है ना प्रभात भैया ? " ---कौन आयेगा, कौन जायेगा, ये तो पता नहीं बेटा लेकिन हम सबके लिए तुम्हारा प्यार देखकर एक गीत याद आ रहा है, सुनोगे ? --रिश्ता दिल के दिल से ऐतबार का...जिन्दा है हमी से नाम प्यार का...किसी को हो ना हो हमे है ऐतबार...जीना इसी का नाम है। चलो जाता हूं...अबे घर जाकर खाना भी बनाना है। -- "प्रभात भैया मां ने गरम रोटी बनाई है,खालो"।
सोमवार, 14 जून 2010
दुबे जी का जागरण
प्रभात रंजन
पिछली सर्दियों में अनायास दुबे जी से मुलाकात हुई । एक राष्ट्रीय अखबार में दुबे जी पत्रकार हैं और बड़े पद पर हैं । खैर, तब मेरे लिए बेरोजगारी का दौर था और मैं एक पुराने दोस्त से मिलने अखबार के ऑफिस गया था । बात ही बात में पता चला कि अगर दुबे जी प्रसन्न हो गए तो मुझे इस अखबार में नौकरी मिल सकती है । मेरे मित्र ने मुझे बगैर किसी सूचना या सावधानी के दुबे जी के सामने छोड़ दिया। दुबे जी का अद्वितीय पत्रकार व्यक्तित्व मुझे भयक्रांत करने के लिए काफी था । चेहरे पर पनपी हुई समाजवादी खिचड़ी दाढ़ी, सिर पर बेतरतीब बिखरे हुए क्रांतिकारी केश , ऐनक के पीछे से घूरती हुईं एक्सरे जैसी आंखे और पान की पीक से फुलाए अपने पिचके हुए गाल। रीतिकाल के कवि बिहारी होते तो कहते - भले बने हो नाथ । कृशकाय शरीर पर उनके कपड़े पहनने का अंदाज बता रहा था कि दुबे जी को पैंट- शर्ट जैसी आधुनिक पोशाक से कोई लगावट नहीं। खैर, दुबे जी ने मुझे हिकारत से और मैनें दुबे जी को बड़ी हैरत से देखा। दुबे जी ने पूछा- “कहां काम करते थे”
मैनें कहा –' इलेक्ट्रॉनिक में था सर'
दुबे जी मुझे दोबारा ऊपर से नीचे तक देखा । फिर पूछा - “अब अखबार में क्यों”
असली बात छुपाकर मैने कहा – 'सर वहां शोर बहुत है और काम कम'
“लेकिन यहां दाम कम है भाई” – दुख और व्यंग्य को फेटकर दुबे जी ने कहा । कुछ काम और बेकाम के सवाल पूछकर दुबे जी ने मेरे हाथ में एक खबर पकड़ाई और कहा – “बन्धुवर इस खबर पर जरा स्क्रीप्ट लिख दें”
खबर पंजाब के एक गांव की थी- एक गधा अपनी मेहनत से मालिक के खेतों को आबाद करता है और मालिक का परिवार एक साल से बड़ी खुशहाल जिन्दगी गुजार रहा है ।
गधे और उसकी बेचारगी को किसान की चालाकी से जोड़कर मुझ गरीब ने एक स्क्रीप्ट लिख मारी। लेकिन हल खींचते गधे का बिम्ब हास्य से इतना भरपूर था कि भाषा जरा मजाकिया हो गयी । और यही बात दुबे जी को अखर गई।
“अरे ये बड़ा संवेदनशील मुद्दा है भाई...गधे की मेहनत को आप मजाक समझते हैं...आपको इस देश के सिस्टम और सरकार पर लिखना चाहिए...आखिर सरकार की नजर गधों की दुर्दशा पर क्यों नहीं जाती...आपने उसकी कर्मठता पर ध्यान दिए बगैर उसकी दशा पर व्यंग्य लिख दिया है...कमाल करते हैं आप..."
भावावेश में दुबे जी और न जाने क्या बोलते, लेकिन मुंह के पान ने ज्यादा बोलने नहीं दिया । दो-चार बार मुंह दाएं-बाएं हिलाकर दुबे जी ने कहा – "नहीं चलेगा भाई। टीभी ने भाषा- विचार, खबर की समझ , सबका बंटाधार कर दिया है । जाइये भाई अखबार आपके बस का नहीं”-
इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता दुबे जी पान थूकने के लिए उठ गए और फिर देर तक नहीं दिखे। अपनी पढ़ाई - लिखाई को लानत देते हुए मैनें भी अखबार के ऑफिस को प्रणाम किया। साथ ही तीसरी कसम के हीरामन की तरह पहली कसम खायी- आज के बाद किसी भी गधे को लेकर मजाक नहीं करूंगा ।
खैर कुछ दिन पहले दुबे जी से दूसरी बार मुलाकात हो गयी । इसबार एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल में। दुबे जी बड़े ही गर्मजोशी से मिले । मैनें पूछा – सर आप यहां ?
“हां न्यूज हेड से मुलाकात करने आया था...दरअसल एक तरह से इंटरव्यू है...सर ने भरोसा दिया है कि इस बार कुछ करेंगे...लगता है आप भी नौकरी के लिए आएं हैं”- दुबे जी बोले ।
मैने कहा- “मेरी बात जाने दीजिए, आप कैसे टीभी में काम करेंगे...यहां तो खटारा लोग काम करते हैं”
दुबे जी बोले –“आपकी बात ठीक है , लेकिन क्या करें भाई...जरूरत इतनी है और उतने पैसे से काम नहीं चलता...आपकी भाभीजी ने जीना दुभर कर रखा है...समझ लीजिए कि बड़ी दिक्कत है ...और इसमें क्या है...जैसी ठसक के साथ प्रिंट में काम किया,वैसे ही इलेक्ट्रॉनिक को भी हांक ले चलेंगे...बल्कि हमारे जैसे लोगों के आने से आपलोगों की भाषा-वाषा ठीक हो जायेंगी...हें-हें-हें...और रही बात खबर की तो वो दोनों जगह से नदारद है-क्या हिन्दी के अखबार और क्या हिन्दी के चैनल...अब तो कमाना- खाना है”
मैनें मन ही मन दुबे जी प्रणाम किया। उनके जागरण पर शुभकामनाएं दी और मिलते रहने का वादा करके अपनी राह पकड़ी।
पिछली सर्दियों में अनायास दुबे जी से मुलाकात हुई । एक राष्ट्रीय अखबार में दुबे जी पत्रकार हैं और बड़े पद पर हैं । खैर, तब मेरे लिए बेरोजगारी का दौर था और मैं एक पुराने दोस्त से मिलने अखबार के ऑफिस गया था । बात ही बात में पता चला कि अगर दुबे जी प्रसन्न हो गए तो मुझे इस अखबार में नौकरी मिल सकती है । मेरे मित्र ने मुझे बगैर किसी सूचना या सावधानी के दुबे जी के सामने छोड़ दिया। दुबे जी का अद्वितीय पत्रकार व्यक्तित्व मुझे भयक्रांत करने के लिए काफी था । चेहरे पर पनपी हुई समाजवादी खिचड़ी दाढ़ी, सिर पर बेतरतीब बिखरे हुए क्रांतिकारी केश , ऐनक के पीछे से घूरती हुईं एक्सरे जैसी आंखे और पान की पीक से फुलाए अपने पिचके हुए गाल। रीतिकाल के कवि बिहारी होते तो कहते - भले बने हो नाथ । कृशकाय शरीर पर उनके कपड़े पहनने का अंदाज बता रहा था कि दुबे जी को पैंट- शर्ट जैसी आधुनिक पोशाक से कोई लगावट नहीं। खैर, दुबे जी ने मुझे हिकारत से और मैनें दुबे जी को बड़ी हैरत से देखा। दुबे जी ने पूछा- “कहां काम करते थे”
मैनें कहा –' इलेक्ट्रॉनिक में था सर'
दुबे जी मुझे दोबारा ऊपर से नीचे तक देखा । फिर पूछा - “अब अखबार में क्यों”
असली बात छुपाकर मैने कहा – 'सर वहां शोर बहुत है और काम कम'
“लेकिन यहां दाम कम है भाई” – दुख और व्यंग्य को फेटकर दुबे जी ने कहा । कुछ काम और बेकाम के सवाल पूछकर दुबे जी ने मेरे हाथ में एक खबर पकड़ाई और कहा – “बन्धुवर इस खबर पर जरा स्क्रीप्ट लिख दें”
खबर पंजाब के एक गांव की थी- एक गधा अपनी मेहनत से मालिक के खेतों को आबाद करता है और मालिक का परिवार एक साल से बड़ी खुशहाल जिन्दगी गुजार रहा है ।
गधे और उसकी बेचारगी को किसान की चालाकी से जोड़कर मुझ गरीब ने एक स्क्रीप्ट लिख मारी। लेकिन हल खींचते गधे का बिम्ब हास्य से इतना भरपूर था कि भाषा जरा मजाकिया हो गयी । और यही बात दुबे जी को अखर गई।
“अरे ये बड़ा संवेदनशील मुद्दा है भाई...गधे की मेहनत को आप मजाक समझते हैं...आपको इस देश के सिस्टम और सरकार पर लिखना चाहिए...आखिर सरकार की नजर गधों की दुर्दशा पर क्यों नहीं जाती...आपने उसकी कर्मठता पर ध्यान दिए बगैर उसकी दशा पर व्यंग्य लिख दिया है...कमाल करते हैं आप..."
भावावेश में दुबे जी और न जाने क्या बोलते, लेकिन मुंह के पान ने ज्यादा बोलने नहीं दिया । दो-चार बार मुंह दाएं-बाएं हिलाकर दुबे जी ने कहा – "नहीं चलेगा भाई। टीभी ने भाषा- विचार, खबर की समझ , सबका बंटाधार कर दिया है । जाइये भाई अखबार आपके बस का नहीं”-
इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता दुबे जी पान थूकने के लिए उठ गए और फिर देर तक नहीं दिखे। अपनी पढ़ाई - लिखाई को लानत देते हुए मैनें भी अखबार के ऑफिस को प्रणाम किया। साथ ही तीसरी कसम के हीरामन की तरह पहली कसम खायी- आज के बाद किसी भी गधे को लेकर मजाक नहीं करूंगा ।
खैर कुछ दिन पहले दुबे जी से दूसरी बार मुलाकात हो गयी । इसबार एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल में। दुबे जी बड़े ही गर्मजोशी से मिले । मैनें पूछा – सर आप यहां ?
“हां न्यूज हेड से मुलाकात करने आया था...दरअसल एक तरह से इंटरव्यू है...सर ने भरोसा दिया है कि इस बार कुछ करेंगे...लगता है आप भी नौकरी के लिए आएं हैं”- दुबे जी बोले ।
मैने कहा- “मेरी बात जाने दीजिए, आप कैसे टीभी में काम करेंगे...यहां तो खटारा लोग काम करते हैं”
दुबे जी बोले –“आपकी बात ठीक है , लेकिन क्या करें भाई...जरूरत इतनी है और उतने पैसे से काम नहीं चलता...आपकी भाभीजी ने जीना दुभर कर रखा है...समझ लीजिए कि बड़ी दिक्कत है ...और इसमें क्या है...जैसी ठसक के साथ प्रिंट में काम किया,वैसे ही इलेक्ट्रॉनिक को भी हांक ले चलेंगे...बल्कि हमारे जैसे लोगों के आने से आपलोगों की भाषा-वाषा ठीक हो जायेंगी...हें-हें-हें...और रही बात खबर की तो वो दोनों जगह से नदारद है-क्या हिन्दी के अखबार और क्या हिन्दी के चैनल...अब तो कमाना- खाना है”
मैनें मन ही मन दुबे जी प्रणाम किया। उनके जागरण पर शुभकामनाएं दी और मिलते रहने का वादा करके अपनी राह पकड़ी।
बुधवार, 19 मई 2010
पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?
जैसा कि हम जानते हैं, हमारे देश में गृह-मंत्रालय भी है। मंत्रालय है तो मंत्री हैं। मंत्री काबिल हैं और कमाल के हैं लेकिन परेशान हैं । उनकी बात किसी के समझ में नहीं आती। आम आदमी तो खैर उनकी जबान क्या समझेगा, चिदंबरम भद्र राजनेताओं के भी पल्ले नहीं पड़ते। इधर राजनीति में जुमलेबाजी का दौर है । एक जुमला चिदंबरम पहले ही मार चुके हैं – बक स्टॉप विद...। अब कहते हैं कि उनके पास नक्सलवाद से लड़ने के लिए पर्याप्त मैंडेट नहीं है । जाहिर है एक बार फिर आम आदमी के समझ में ये मुहावरा भी नहीं आने वाला है। लेकिन अरुण जेटली ने फटाफट समझ लिया। समझ लिया इसलिए देर न करते हुए, चिदंबरम पर एक जबरदस्त जुमले से वार किया । घायल शहीद। चिदंबरम चारो खाने चित्त । कहते रहे कि इन शब्दों का चयन बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है । अब गृहमंत्री को कौन समझाये कि बक स्टॉप विद चीफ मिनिस्टर वाला जुमला भी दुर्भाग्यपूर्ण था । देखा जाए तो सारा दोष भाषा और मुहावरों का है । कुछ दिन पहले जब शशी थरूर ने कैटल क्लास वाला जुमला इस्तेमाल किया था तो कढ़ी में उबाल आ गया था ( क्या मुहावरा है )। इधर संसद में मणिशंकर ने जुमले के तौर पर जेटली को जब फासिस्ट कहा तो राज्यसभा में बवाल हो गया । ये तो फिर भी अंग्रेजी के जुमले हैं, ज्यादातर लोगों के अर्थ समझते समझते असर खो देते हैं । हिन्दी के मुहावरों का क्या असर होता है , ये कोई लालू और मुलायम से पूछे । गडकरी ने मातृभाषा के एक मुहावरे में दोनों को कुत्ते की तरह तलवे चाटने वाला कहा । हंगामा होना ही था ,और खुब हुआ। कुत्ते का जातीय चरित्र ही ऐसा है, वरना किसी को शेर कहने पर वो कतई बुरा नहीं मानता । मुहावरे में शेर को जानवर नहीं मानते, लेकिन कुत्ता फिर भी कुत्ता ही बना रहता है। बेचारा । फिलहाल देश की राजनीति ऐसे ही जुमलों के सहारे चलती लगती है । गृहमंत्री शायद नक्सलियों के खिलाफ एयर फोर्स के बारे में सोच रहे हैं लेकिन दिग्विजय सिंह इस बात से घोर असहमत हैं । दिग्गी राजा फरमाते हैं कि सुरक्षा बलों को उतारने के लिए हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन एयर फोर्स का नहीं । ये जुमला नहीं है और राजनीति भी नहीं इसलिए हमारे किसी काम की नहीं । जुमला तो कांग्रेस के केशव राव ने मारा है--नक्सलियों के मामलें में पहले विकास फिर बात और आखिर में कार्रवाई । सर जी जुमला तो बड़ा जबरदस्त है लेकिन काफी पुराना है। गृहमंत्री के ग्रीन हंट जुमले की टक्कर में कहीं नहीं टिकता । खैर संजीदा मसलों पर नेताओं की जुमलेबाजी तो हम देख सुन रहे हैं, लेकिन अहम सवाल अपनी जगह है। मुक्तिबोध की शैली में हमें भी पूछना है , पार्टनर मुहावरे को जाने दो तेल लेने तुम बताओ तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?
शुक्रवार, 14 मई 2010
जलेबी का समाजवाद
मेरे जीवन में एक ऐसा वक्त आ गया है
जब खोने को
कुछ भी नहीं है मेरे पास
दिन, दोस्ती, रवैया
राजनीति
गपशप, घास
और स्त्री हालॉकि वह बैठी हुई है
मेरे पास... ( श्रीकांत वर्मा )
...मैं भी कह सकता हूं यह बात । अव्वल तो कई चीजे कभी हासिल नहीं हुई। कुछ मिलने के बाद खो गईं । फिर भी, जो शेष है उससे आसक्त नहीं हूं । सिवाय जलेबी के । जलेबी के साथ रोमांस बचपन में शुरू हुआ । जवानी तक चला आया है । मां मीठा कम खाने की हिदायत देती रहती हैं, लेकिन कमबख्त जलेबी से नजर आज भी नहीं चुरा पाता । हफ्ते में कम से कम दो बार चख लेता हूं । दिल्ली के मुखर्जी नगर इलाके में जहां रहता हूं , वही गली के मोड़ पर जलेबी की एक दुकान है । माफ कीजिए , मुझे सच बोलना चाहिए । एक जलेबी बनाने वाले का ठेला है । दिन ढ़लने से पहले यूपी के गोरखपूर का रहने वाला श्याम अपनी दुकान ( ठेला ) सजा लेता है । मैदा के घोल वाले बड़े कनस्तर, एक कम गहराई वाली कड़ाही, चिमटे – चुल्हा और एक छोटू । काम की तलाश में गांव से श्याम के साथ ही चला आया है छोटू । दुकान लगने की देर भर होती है कि देखते- देखते ग्राहक ठेले पर टूट पड़ते हैं । ग्राहक यानि मुखर्जी नगर में रहने वाले प्रवासी छात्र और छात्राएं— इनमें से कई कल के बड़े आईएएस अधिकारी हैं । दुकान पर विधार्थियों की तादाद ज्यादा होती है क्योंकि आर्थिक पैमाने पर जलेबी उनकी जेब को भी पसंद आती है । पांच रुपए की जलेबी में स्वाद भी आ जाता है, शाम भी कट जाती है । एक तबका और है रिक्शा चालकों का और आसपास मजदुरी करने वालों का । दिन भर की मेहनत के बाद सुस्ताने के नाम पर ठंढा पानी पीने के लिए , मीठी जलेबी बड़ी कारगर होती है । रस में डूबी हुईं, गरम-गरम करारी जलेबियां जो सुख देती है , उसे थके हुए चेहरों पर देखा जा सकता है, बयान नहीं किया जा सकता । इस तरह महानगर में आए दूर कस्बे - देहात के नौजवान हों या मजदुर , जलेबी दोनो को बेहद पसंद है । श्याम के ठेले पर कार से उतर कर जलेबी लेने वाले भी अच्छी तादाद में आते हैं और मम्मियों का हाथ पकड़े छोटे बच्चे भी । सभी एक दुसरे के बगल में खड़े होकर मजे से जलेबियां खाते हैं। पढ़ी लिखी नौजवान पीढ़ी को किसी रिक्शेवाले के बगल में खड़ा होकर जलेबी खाने में कोई गुरेज नहीं होता । कार वालों को मजदुरों से घिन नहीं आती। । देश की सबसे सस्ती मिठाई, अपनी चासनी में सबको एक साथ डूबा लेती है । महानगर में गली- गली मिठाई की ब्रांड दुकाने हैं ,लेकिन क्या ऐसा नजारा वहां मुमकिन है? अगर देखा जाए तो मुखर्जी नगर ही क्यों , कहीं भी जलेबी का ठेला समाजवाद का अनोखा प्रतीक है । एक स्वाद जो सबके लिए है और सबको मयस्सर है ।
और आखिर में फैज साहब का एक शेर –
आस उस दर से टूटती नहीं
जाके देखा,न जाके देख लिया
जब खोने को
कुछ भी नहीं है मेरे पास
दिन, दोस्ती, रवैया
राजनीति
गपशप, घास
और स्त्री हालॉकि वह बैठी हुई है
मेरे पास... ( श्रीकांत वर्मा )
...मैं भी कह सकता हूं यह बात । अव्वल तो कई चीजे कभी हासिल नहीं हुई। कुछ मिलने के बाद खो गईं । फिर भी, जो शेष है उससे आसक्त नहीं हूं । सिवाय जलेबी के । जलेबी के साथ रोमांस बचपन में शुरू हुआ । जवानी तक चला आया है । मां मीठा कम खाने की हिदायत देती रहती हैं, लेकिन कमबख्त जलेबी से नजर आज भी नहीं चुरा पाता । हफ्ते में कम से कम दो बार चख लेता हूं । दिल्ली के मुखर्जी नगर इलाके में जहां रहता हूं , वही गली के मोड़ पर जलेबी की एक दुकान है । माफ कीजिए , मुझे सच बोलना चाहिए । एक जलेबी बनाने वाले का ठेला है । दिन ढ़लने से पहले यूपी के गोरखपूर का रहने वाला श्याम अपनी दुकान ( ठेला ) सजा लेता है । मैदा के घोल वाले बड़े कनस्तर, एक कम गहराई वाली कड़ाही, चिमटे – चुल्हा और एक छोटू । काम की तलाश में गांव से श्याम के साथ ही चला आया है छोटू । दुकान लगने की देर भर होती है कि देखते- देखते ग्राहक ठेले पर टूट पड़ते हैं । ग्राहक यानि मुखर्जी नगर में रहने वाले प्रवासी छात्र और छात्राएं— इनमें से कई कल के बड़े आईएएस अधिकारी हैं । दुकान पर विधार्थियों की तादाद ज्यादा होती है क्योंकि आर्थिक पैमाने पर जलेबी उनकी जेब को भी पसंद आती है । पांच रुपए की जलेबी में स्वाद भी आ जाता है, शाम भी कट जाती है । एक तबका और है रिक्शा चालकों का और आसपास मजदुरी करने वालों का । दिन भर की मेहनत के बाद सुस्ताने के नाम पर ठंढा पानी पीने के लिए , मीठी जलेबी बड़ी कारगर होती है । रस में डूबी हुईं, गरम-गरम करारी जलेबियां जो सुख देती है , उसे थके हुए चेहरों पर देखा जा सकता है, बयान नहीं किया जा सकता । इस तरह महानगर में आए दूर कस्बे - देहात के नौजवान हों या मजदुर , जलेबी दोनो को बेहद पसंद है । श्याम के ठेले पर कार से उतर कर जलेबी लेने वाले भी अच्छी तादाद में आते हैं और मम्मियों का हाथ पकड़े छोटे बच्चे भी । सभी एक दुसरे के बगल में खड़े होकर मजे से जलेबियां खाते हैं। पढ़ी लिखी नौजवान पीढ़ी को किसी रिक्शेवाले के बगल में खड़ा होकर जलेबी खाने में कोई गुरेज नहीं होता । कार वालों को मजदुरों से घिन नहीं आती। । देश की सबसे सस्ती मिठाई, अपनी चासनी में सबको एक साथ डूबा लेती है । महानगर में गली- गली मिठाई की ब्रांड दुकाने हैं ,लेकिन क्या ऐसा नजारा वहां मुमकिन है? अगर देखा जाए तो मुखर्जी नगर ही क्यों , कहीं भी जलेबी का ठेला समाजवाद का अनोखा प्रतीक है । एक स्वाद जो सबके लिए है और सबको मयस्सर है ।
और आखिर में फैज साहब का एक शेर –
आस उस दर से टूटती नहीं
जाके देखा,न जाके देख लिया
गुरुवार, 6 मई 2010
धंधे का मास्टर स्ट्रोक
प्रभात रंजन
गरीबी का अपना एक अलग सौन्दर्य होता है- ऐसा सुना है । आजकल देख रहा हूं । सौन्दर्य भी ऐसा कि कलेजा मुंह को आता है और हाथ हड़बड़ाहट में कलेजे तक जाता है। पूरा मोहल्ला उसे देखने की बाट जोहता रहता है। दिख जाए तो आफत ना दिखे तो आफत । बस यूं समझें कि "कमबख्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह" - जैसी पोज में मोहल्ला पलक- पावड़े बिछाए रहता है ।
अब आगे की कहानी फ्लैश बैक में.....
महीने भर पहले हमारी गली के आखिरी मकान के आगे, कपड़े आयरन करने की एक दुकान खुली।मोहल्ले में पहले से एक दुकान थी । इकलौती दुकान धड़ल्ले से चलती थी। नई दुकान खुलने का बाद भी पुरानी पर कोई असर नहीं पड़ा क्योंकि लोगों को उसकी आदत पड़ चुकी थी । कपड़े धुलते रहे , पुरानी दुकान पर आयरन होते रहे और नई दुकान पर मक्खियां उड़ती रहीं । कई दिनों तक । लेकिन बेहद गर्मी के बाद जैसे बारिश के आने से मौसम बदल जाता है , हमारे मोहल्ले की फिजा भी बदली । एक दिन सुबह – सुबह ही कुछ जगे कुछ सोये लोगों की कान में एक मधुर आवाज पड़ी। आयरन के लिए कपड़े दे दो भैया....बाऊजी...अम्मा...भाभी...कपड़े दे दो । मोहल्ला एक झटके से निंद से जागा । आंखे खोलकर उसे देखा और बस देखता रह गया । कमर कुछ ज्यादा ही मटकाते और एड़ियों से धूप उड़ाते, उसने पल भर में पूरे मोहल्ले का मुआयना कर लिया। नई भाभियों के दिल में तलवार की तरह धंसी तो पुराने भाईयों के दिल में उतर गई । तुरंत ही पता चल गया कि मोहतरमा आयरन करने वाली नई दुकान की मालकिन हैं । और ये भी कि आइन्दा दुकान इनकी देख रेख में ही चलेगी । इस सूचना को मोहल्ले ने खुले दिल से स्वीकार किया । कपड़ो के गठ्ठर ने अपना रास्ता बदल लिया। मैडम की तिरछी नजर जिस पर भी पड़ी- भाई, अंकल या बाऊजी -वो उनका स्थायी कंज्यूमर हो गया। अब धुले कपड़ो के लेन देन में अदाओं का कारोबार चलता है । नई दुकान खूब चलती है। पुरानी शायद जल्दी ही बंद हो जाएगी। कहना होगा कि बिजनेस का ये मास्टर स्ट्रोक है , जिसका इस्तेमाल अभी तक बहुराष्ट्रीय कंपनियां और बड़ी दुकान वाले करते थे। छोटे कारोबारियों को भी इसकी समझ हो रही है । बहरहाल तमाशा है , मजा लीजिए। अचानक ,बेवजह कुछ भी नहीं होता ( अचानक सिर्फ फूल खिलते हैं और बेवजह सिर्फ गधे दुलत्ती मारते हैं )। मुद्दे की बात - धंधे के लिए मार्केटिंग की समझ हो तो नई दुकान भी झट से चल पड़ती है । और जैसा कि चचा गालिब भी कह गए हैं, शाह का मुसाहिब होना खराब बात नहीं होती। ये कला आती हो तो आपका खोटा सिक्का भी खन- खन करता है ।
गरीबी का अपना एक अलग सौन्दर्य होता है- ऐसा सुना है । आजकल देख रहा हूं । सौन्दर्य भी ऐसा कि कलेजा मुंह को आता है और हाथ हड़बड़ाहट में कलेजे तक जाता है। पूरा मोहल्ला उसे देखने की बाट जोहता रहता है। दिख जाए तो आफत ना दिखे तो आफत । बस यूं समझें कि "कमबख्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह" - जैसी पोज में मोहल्ला पलक- पावड़े बिछाए रहता है ।
अब आगे की कहानी फ्लैश बैक में.....
महीने भर पहले हमारी गली के आखिरी मकान के आगे, कपड़े आयरन करने की एक दुकान खुली।मोहल्ले में पहले से एक दुकान थी । इकलौती दुकान धड़ल्ले से चलती थी। नई दुकान खुलने का बाद भी पुरानी पर कोई असर नहीं पड़ा क्योंकि लोगों को उसकी आदत पड़ चुकी थी । कपड़े धुलते रहे , पुरानी दुकान पर आयरन होते रहे और नई दुकान पर मक्खियां उड़ती रहीं । कई दिनों तक । लेकिन बेहद गर्मी के बाद जैसे बारिश के आने से मौसम बदल जाता है , हमारे मोहल्ले की फिजा भी बदली । एक दिन सुबह – सुबह ही कुछ जगे कुछ सोये लोगों की कान में एक मधुर आवाज पड़ी। आयरन के लिए कपड़े दे दो भैया....बाऊजी...अम्मा...भाभी...कपड़े दे दो । मोहल्ला एक झटके से निंद से जागा । आंखे खोलकर उसे देखा और बस देखता रह गया । कमर कुछ ज्यादा ही मटकाते और एड़ियों से धूप उड़ाते, उसने पल भर में पूरे मोहल्ले का मुआयना कर लिया। नई भाभियों के दिल में तलवार की तरह धंसी तो पुराने भाईयों के दिल में उतर गई । तुरंत ही पता चल गया कि मोहतरमा आयरन करने वाली नई दुकान की मालकिन हैं । और ये भी कि आइन्दा दुकान इनकी देख रेख में ही चलेगी । इस सूचना को मोहल्ले ने खुले दिल से स्वीकार किया । कपड़ो के गठ्ठर ने अपना रास्ता बदल लिया। मैडम की तिरछी नजर जिस पर भी पड़ी- भाई, अंकल या बाऊजी -वो उनका स्थायी कंज्यूमर हो गया। अब धुले कपड़ो के लेन देन में अदाओं का कारोबार चलता है । नई दुकान खूब चलती है। पुरानी शायद जल्दी ही बंद हो जाएगी। कहना होगा कि बिजनेस का ये मास्टर स्ट्रोक है , जिसका इस्तेमाल अभी तक बहुराष्ट्रीय कंपनियां और बड़ी दुकान वाले करते थे। छोटे कारोबारियों को भी इसकी समझ हो रही है । बहरहाल तमाशा है , मजा लीजिए। अचानक ,बेवजह कुछ भी नहीं होता ( अचानक सिर्फ फूल खिलते हैं और बेवजह सिर्फ गधे दुलत्ती मारते हैं )। मुद्दे की बात - धंधे के लिए मार्केटिंग की समझ हो तो नई दुकान भी झट से चल पड़ती है । और जैसा कि चचा गालिब भी कह गए हैं, शाह का मुसाहिब होना खराब बात नहीं होती। ये कला आती हो तो आपका खोटा सिक्का भी खन- खन करता है ।
सोमवार, 26 अप्रैल 2010
तुझमें कोई कमी नहीं पाते
फिराक गोरखपुरी की गजल
बन्दगी से कभी नहीं मिलती
इस तरह ज़िन्दगी नहीं मिलती
लेने से ताज़ो-तख़्त मिलता है
मांगे से भीख भी नहीं मिलती
एक दुनिया है मेरी नज़रों में
पर वो दुनिया अभी नहीं मिलती
जब तक ऊँची न हो जमीर की लौ
आँख को रौशनी नहीं मिलती
तुझमें कोई कमी नहीं पाते
तुझमें कोई कमी नहीं मिलती
यूँ तो मिलने को मिल गया है ख़ुदा
पर तेरी दोस्ती नहीं मिलती
बस वो भरपूर जिन्दगी है ’फ़िराक़’
जिसमें आसूदगी नहीं मिलती
बन्दगी से कभी नहीं मिलती
इस तरह ज़िन्दगी नहीं मिलती
लेने से ताज़ो-तख़्त मिलता है
मांगे से भीख भी नहीं मिलती
एक दुनिया है मेरी नज़रों में
पर वो दुनिया अभी नहीं मिलती
जब तक ऊँची न हो जमीर की लौ
आँख को रौशनी नहीं मिलती
तुझमें कोई कमी नहीं पाते
तुझमें कोई कमी नहीं मिलती
यूँ तो मिलने को मिल गया है ख़ुदा
पर तेरी दोस्ती नहीं मिलती
बस वो भरपूर जिन्दगी है ’फ़िराक़’
जिसमें आसूदगी नहीं मिलती
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