गुरुवार, 6 मई 2010

धंधे का मास्टर स्ट्रोक

 प्रभात रंजन
गरीबी का अपना एक अलग सौन्दर्य होता है- ऐसा सुना है । आजकल देख रहा हूं । सौन्दर्य भी ऐसा कि कलेजा मुंह को आता है और हाथ हड़बड़ाहट में कलेजे तक जाता है। पूरा मोहल्ला उसे देखने की बाट जोहता रहता है। दिख जाए तो आफत ना दिखे तो आफत । बस यूं समझें कि "कमबख्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह" - जैसी पोज में मोहल्ला पलक- पावड़े बिछाए रहता है ।
अब आगे की कहानी फ्लैश बैक में.....
महीने भर पहले हमारी गली के आखिरी मकान के आगे, कपड़े आयरन करने की एक दुकान खुली।मोहल्ले में पहले से एक दुकान थी । इकलौती दुकान धड़ल्ले से चलती थी। नई दुकान खुलने का बाद भी पुरानी पर कोई असर नहीं पड़ा क्योंकि लोगों को उसकी आदत पड़ चुकी थी । कपड़े धुलते रहे , पुरानी दुकान पर आयरन होते रहे और नई दुकान पर मक्खियां उड़ती रहीं । कई दिनों तक । लेकिन बेहद गर्मी के बाद जैसे बारिश के आने से मौसम बदल जाता है , हमारे मोहल्ले की फिजा भी बदली । एक दिन सुबह – सुबह ही कुछ जगे कुछ सोये लोगों की कान में एक मधुर आवाज पड़ी। आयरन के लिए कपड़े दे दो भैया....बाऊजी...अम्मा...भाभी...कपड़े दे दो । मोहल्ला एक झटके से निंद से जागा । आंखे खोलकर उसे देखा और बस देखता रह गया । कमर कुछ ज्यादा ही मटकाते और एड़ियों से धूप उड़ाते, उसने पल भर में पूरे मोहल्ले का मुआयना कर लिया। नई भाभियों के दिल में तलवार की तरह धंसी तो पुराने भाईयों के दिल में उतर गई । तुरंत ही पता चल गया कि मोहतरमा आयरन करने वाली नई दुकान की मालकिन हैं । और ये भी कि आइन्दा दुकान इनकी देख रेख में ही चलेगी । इस सूचना को मोहल्ले ने खुले दिल से स्वीकार किया । कपड़ो के गठ्ठर ने अपना रास्ता बदल लिया। मैडम की तिरछी नजर जिस पर भी पड़ी- भाई, अंकल या बाऊजी -वो उनका स्थायी कंज्यूमर हो गया। अब धुले कपड़ो के लेन देन में अदाओं का कारोबार चलता है । नई दुकान खूब चलती है। पुरानी शायद जल्दी ही बंद हो जाएगी। कहना होगा कि बिजनेस का ये मास्टर स्ट्रोक है , जिसका इस्तेमाल अभी तक बहुराष्ट्रीय कंपनियां और बड़ी दुकान वाले करते थे। छोटे कारोबारियों को भी इसकी समझ हो रही है । बहरहाल तमाशा है , मजा लीजिए। अचानक ,बेवजह कुछ भी नहीं होता  ( अचानक सिर्फ फूल खिलते हैं और बेवजह सिर्फ गधे दुलत्ती मारते हैं )। मुद्दे की बात -  धंधे के लिए मार्केटिंग की समझ हो तो  नई दुकान भी झट से चल पड़ती है । और जैसा कि चचा गालिब भी कह गए हैं,  शाह का मुसाहिब होना खराब बात नहीं होती। ये कला आती हो तो आपका खोटा सिक्का भी खन- खन करता है ।

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

बहुत खूब.........

उम्दा पोस्ट

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

आज दिनांक 12 मइ्र 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट शाह का मुनासिब शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।