शुक्रवार, 1 मई 2009

मुद्दाविहीन चुनाव, लहर और जनसरोकार

अभी एक टेलिविजन डेवेट देख रहा था जिसमें राजदीप, आशुतोष. योगेंद्र यादव और श्रवण गर्ग भाग ले रहे थे। जाहिरन मुद्दा लोकसभा चुनाव ही था और बात घूमफिर वहीं आ अटकी थी कि चुनाव के बाद क्या होनेवाला है। एक बिन्दु पर लगभग सभी सहमत थे कि ये चुनाव मुद्दाविहीन चुनाव है और इसी वजह से किसी तरह की अटकलवाजी गलत हो सकती है। राजदीप ने कहा कि चुनाव में थोड़ाबहुत मुद्दा है तो वो महंगाई और आर्थिक मंदी है लेकिन मूलत: बड़े पैंमाने पर ये चुनाव लोकल इश्यूज पर लड़े जा रहे हैं। बिहार का मुद्दा अलग है कर्नाटक का अलग, यहां तक कि उत्तरी और दक्षिणी मुम्बई का मुद्दा भी अलग-अलग है। एक विद्वान का कहना था कि ये भी अपने आप में चिंता की बात है कि राजनैतिक परिपक्वता की ओर अग्रसर इतना बड़ा मुल्क एक राष्ट्रीय मुद्दा तक नहीं खोज पाया है। लेकिन इसके उलट भी कई तर्क हैं जो काफी मजबूत हैं।

ये कहना कि देश में राष्ट्रीय मुद्दों का अकाल हो गया है, सच से मुंह चुराना होगा। जिस देश की एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती हो, जिस देश में सिर्फ सस्ता अनाज उपलब्ध करवा कर वोट बटोरे जा सकते हों वहां मुद्दों का अभाव होना दरअसल कुछ खतरनाक इशारा करता है। सच्चाई तो ये है कि हमारे पास उतना कद्दावर नेतृत्व नहीं है जो कई बड़े मुद्दे को अपनी शख्सियत और पार्टी की विचारधारा में समेट सके। एक मुल्क के तौर पर यह हमारी बड़ी नाकामी है कि हमें औसत किस्म के सियासतदानों में से एक को अपना रहनुमा चुनना है।

दूसरी बात ये आजादी के कुछ ही दिनों के बाद से जब हमारे सपने टूटकर बिखरने लगे थे, हमने नकली मुद्दों की तरफ चुनाव को झोंकना शुरु कर दिया। जबसे हमने लहरों के आधार पर अपना वोट देना शुरु किय़ा हमारे नेतृत्व का दिवालियापन सामने आने लगा। मुझे लगता है कि ये साल इकहत्तर में भी हुआ जब हमने बंग्लादेश युद्ध के बाद फिर से इंदिराजी को चुना था, यहीं सन 84 में भी हुआ जब उनकी मौत के बाद राजीव गांधी गद्दीनशीं हुए थे। ऐसा सन् ൯൧ में भी हुआ और उसके बाद तो ये ൯൯ तक हुआ। दरअसल, हमारी चालाक सियासी पार्टियों ने जरुरी मुद्दों से हमें भटकाने के लिए लहर का ढ़ोंग रचा ताकि हम सवाल उठाना बंद कर दें। ये चुनाव इस मायने में काफी अच्छा है जब हम लाख बहकावे के बावजूद अपने मुद्दों के आधार पर-चाहे वो कईयों की नजर में कितने ही तुच्छ क्यों न हों-वोट कर रहे हैं।

दूसरी बात जो अहम है वो ये कि राष्ट्रीय मुद्दे या लहर जैसी बात बड़ी पार्टियों के हक में जाती है। यहां ये लिखने का मतलब बड़ी पार्टियों का विरोध नहीं है बल्कि इतना जरुर है कि छोटी पार्टियों के आने से लोकतंत्र ज्यादा मजबूत, जनापेक्षी और जवाबदेह बना है। हलांकि शुरुआती दौर में इसमें कुछ गिरावटें देखने को मिल सकती है लेकिन ऐसा तो हर विकासशील व्यवस्था में अनिवार्य होता है। हमें याद है कि कांग्रेस की बहुमत के जमाने में किस तरह सूबों के काबिल और जनाधारवाले नेताओं को ऊपर उठने का मौका नहीं मिलता था। आज ऐसी स्थिति नहीं है। हां, इससे बड़ी पार्टियां भी सीख ले रही है कि विराट और आभामंडल से घिरा हुआ नेतृत्व अब काबिल और लोकप्रिय नेताओं की अनेदेखी से बच रहा है।

कुल मिलाकर चुनाव ऐसी डगर पर चल पड़ा है जहां बड़े करीने से गढ़े गए लोकलुभावन चेहरे और नकली मुद्दों-जिन्हे राष्ट्रीयता का चोला पहना दिया जाता था-की अहमियत कम हुई है। हमारे यहां राष्ट्रीय छवि, मुद्दों और अपील को बड़ी चतुराई से घालमेल कर देने की परंपरा रही है, और वोटर इसबार इससे मुक्त होता हुआ दिखता है। राष्ट्रीय अपील का मतलब खूबसूरत चेहरे, खानदान, भावुकता और उन्माद न होकर जनसरोकारों की बात करनेवाली आवाज होनी चाहिए-जो फिलहाल तो नहीं दिख रही, लेकिन हो तो बेहतर है।

2 टिप्‍पणियां:

प्रभात रंजन ने कहा…

सुशांत को पढना हमेशा चुनौतीपुर्ण होता है...लेकिन बुरा तब लगता है जब चाहते हुए भी उसके प्रत्युत्तर में कुछ लिख नहीं पाता...लिखने के रोजगार में होते हुए भी लिख पाना अब दुश्वार होता जा रहा है...वैसे ही जैसे खबरों से खेलते हुए भी खबर समझना मुश्किल होता जा रहा है....
खैर शुभकामनाएं सुशांत को

प्रभात रंजन ने कहा…

सुशांत को पढना हमेशा चुनौतीपुर्ण होता है...लेकिन बुरा तब लगता है जब चाहते हुए भी उसके प्रत्युत्तर में कुछ लिख नहीं पाता...लिखने के रोजगार में होते हुए भी लिख पाना अब दुश्वार होता जा रहा है...वैसे ही जैसे खबरों से खेलते हुए भी खबर समझना मुश्किल होता जा रहा है....
खैर शुभकामनाएं सुशांत को