गुरुवार, 1 मई 2008

मल्ल युद्ध

मनोज भाई को बतकही के दौरान सुनना एक शानदार अनुभव है लेकिन पढ़ना तो बस कमाल है । तलवार की नोक से गुदगुदाने की कला जानते है, बशर्ते सुनने वाला लापरवाह न हो।
मनोज मेहता आजकल इंडिया न्यूज में विशेष संवाददाता हैं। अपने संकलन से एक कविता हलफ़नामा के तौर पर भेजी है।

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ताल ठोकते
आमने सामने दो वीर
नगाड़े - ढोलक
चीख – पुकार
उमड़ता हुआ पूरा गांव
मिट्टी और पसीने का
मुंह में फैला – एक सा स्वाद
अवसर फिसलने की निराशा
दबोच लेने के
तमाम पैंतरों के बीच
जरूरी नहीं है यह जिक्र
कि इनके पास होता था
हजार – हजार हाथियों का बल
ये राजा होते थे
सेनापति होते थे
और हस्तिनापुर , मगध , काशी
हर जगह पाये जाते थे
ये पी जाते थे
दसियों मन दूध
सेरो घी
लगाते थे
कई – कई योजन का चक्कर
हजारों बैठकें
और ललकार भर देने से
मच जाता था घमासान
जूझते थे हफ्तों – अथक

अब कोई वैसे ललकारे
तो हंसी होगी उसकी
रणनीतिक भूल
कि न्यूज चैनलों के हित ही
अब लड़े जाते हैं युद्ध
कि जब तक वह कसेगा अपनी लंगोट
तब तक खुल जाएगा
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का पिटारा
और उसके मसखरे
निकल कर टहलने लगेंगे
वायरस की तरह
लोगों के दिमाग में
कि गिर जाएगा
शेयर बाजार का पहाड़ उसकी पीठ पर
और वह मन ही मन
पूजता रह जाएगा
महावीर जी को

मौका ऐसे ही किसी कारण
चूक जाएगा कोई एक
और दूसरा
धम्म से जा बैठेगा
उसकी छाती पर
उमेठने लगेगा उसकी गर्दन

शोर का एक बवंडर उठेगा
थकान , प्यास
ऐंठती हुई अंतड़ियों
और पसीने से लिथड़ा
अखाड़े की छाती से उठ कर
वह दौड़ने लगेगा
चक्राकार
ढोल – नगाड़े
बरसते हुए पैसों
और जयकार के बीच
एक हाथ में
प्रतिरोध का
पूर्व पाषाणयुगीन विकल्प लिए।

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