गुरुवार, 29 मई 2008

जरा देखिए, रिल्के क्या कहते हैं कविता लिखने वालों के लिए

एक अच्छी कविता लिखने के लिए तुम्हें बहुत से नगर और नागरिक और वस्तुएं देखनी-जाननी चाहिए। बहुत से पशु और पक्षी ...पक्षियों के उड़ने का ढब, नन्हें फूलों के किसी कोरे प्रात: में खिलने की मुद्रा, अज्ञात प्रदेशों ...अनजानी सड़कों को पलटकर देखने का स्वाद। अप्रत्याशित से मिलन। कब से अनुमानित बिछोह। बचपन के अनजाने दिनों के अबूझ रहस्य, माता-पिता जिन्हें आहत करना पड़ा था, क्योंकि उनके जुटाए सुख उस घड़ी आत्मसात नहीं हो पाए थे। आमूल बदल देनेवाली छुटपन की रुग्नताएं। खामोश कमरों में दुबके दिन। समुद्र की सुबह। समुद्र ख़ुद। सब समुद्र। सितारों से होड़ लगाती यात्रा की गतिवान रातें।
नहीं, इतना भर ही नहीं। उद्दाम रातों कि नेह भरी स्मृतियाँ ...प्रसव पीड़ा में चीखती औरत। पीली रोशनी। निद्रा में उतरती सद्य: प्रसूता। मरणासन्न के सिरहाने ठिठके क्षण। मृतक के साथ खुली खिड़की वाले कमरे में गुजारी रात्रि और बाहर बिखरा शोर।
नहीं, इन सब यादों में तिर जाना काफी नहीं; तुम्हें और भी कुछ चाहिए ....इस स्मृति -सम्पदा को भुला देने का बल। इनके लौटने को देखने का अनंत धीरज .....जानते हुए कि इस बार जब वह आएगी तो यादें नहीं होंगी। हमारे ही रक्त, मुद्रा और भाव में घुल चुकी अनाम धप-धप होगी, जो अचानक, अनूठे शब्दों में फूटकर किसी घड़ी बोल देना चाहेगी, अपने आप।
.......एक ही काम है जो तुम्हें करना चाहिए - अपने में लौट जाओ। उस केन्द्र को ढूंढो जो तुम्हें लिखने का आदेश देता है। जानने की कोशिश करो कि क्या इस बाध्यता ने तुम्हारे भीतर अपनी जड़ें फैला ली हैं? अपने से पूछो कि यदि तुम्हें लिखने की मनाही हो जाए तो क्या तुम जीवित रहना चाहोगे? ...अपने को टटोलो...इस गंभीरतम ऊहापोह के अंत में साफ-सुथरी समर्थ 'हाँ'' सुनने को मिले, तभी तुम्हें अपने जीवन का निर्माण इस अनिवार्यता के मुताबिक करना चाहिए। या फिर
अगर अपना रोज का जीवन दरिद्र लगे तो जीवन को मत कोसो। अपने को कोसो। स्वीकारो कि तुम उतने अच्छे कवि नहीं हो पाए कि अपनी रिद्धियों-सिद्धियों का आह्वान कर सको। वस्तुतः रचयिता के लिए न दरिद्रता सच है, न ही कोई स्थान निस्संग। अगर तुम्हें जेल की पथरीली दीवारों के अंदर रख दिया जाए जो एकदम बहरी होती हैं, और एक फुसफुसाहट तक भीतर नहीं आने देतीं, तब भी तुम्हें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। तुम्हारे पास बचपन तो होगा...स्मृतियों की अनमोल मंजूषा...एकांत विस्तृत होकर एक ऐसा नीड़ बनाएगा, जहाँ तुम मंद रोशनी में भी रह सकोगे।

तेल की फिसलन !

ओमप्रकाश
सब सांस रोके इंतज़ार कर रहे हैं कि पेट्रोल-डीज़ल के दाम आज बढ़े कि कल । बढ़ेगें तो ज़रुर। एक कमाल की बात है। एक तरफ सरकार और सरकारी तेल कंपनियां इस बात पर माथा खपा रही हैं कि बढ़ते पेट्रोलियम सब्सिडी से कैसे छुटकारा मिले। क्योंकि, चालू वित्तिय साल में ये सब्सिडी 2 लाख करोड़ के पार जा सकती है। ये राशि इतनी है कि भारत निर्माण और राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना की पूरी राशि भी बौनी साबित हो जाए। सरकारी तेल कंपनियों को हर दिन 600 करोड़ का नुकसान हो रहा है। लेकिन राजनीति ने पांव जकड़ रखे हैं। भाई, तेल के दाम कौन बढ़ाना चाहेगा, वो भी चुनावी बेला में। लेकिन मज़े की बात कि सरकार अपने राजस्व में कोई कमी करने को तैयार नहीं है। एक लीटर पेट्रोल या डीज़ल पर जो पैसे हम चुका रहे हैं, उसका लगभग 50 फीसदी सरकारों के पास कमाई के रुप में जाता है और 50 फीसदी सरकारी तेल कंपनियों के पास।
आज देश में कच्चे तेल के आने के बाद हमारी सरकारें कुल चार तरह के कर आम जनता से वसूलती है। आज भी जब महंगाई 8 फीसदी के आसपास मंडरा रही है, तब भी इन करों में कोई राहत नहीं है। चाहे आयात कर हो या सीमा शुल्क, उत्पाद शल्क हो या राज्यों के बिक्री कर। आज हमारे देश में पेट्रोलियम उत्पादों पर 32 फीसदी से ज्यादा उत्पाद शल्क वसूला जा रहा है, जबकि चीन में ये मात्र 5 फीसदी है तो पाकिस्तान में सिर्फ 2 फीसदी। इस बीच कई ख़बरें आ रही है, जैसे तेल कंपनियों के बढ़ते घाटे को कम करने के लिए आयकर और कॉरपरेट करों पर एक उपकर यानी सेस लगा दिया जाए। लेकिन क्या सरकार ऐसा जोखिम लेगी। पहले ही फरवरी में सरकार ने तेल के दाम बढ़ाए थे, लेकिन काफी कम। पिछले 8 महीने में कच्चे तेल की कीमतें 64 से 130 डॉलर प्रति बैरल तक जा चुकी हैं। लेकिन हमारे यहां कीमतें बढ़ी सिर्फ 3 से 4 फीसदी तक। ये राजनीति ही है जिसने कीमतें बढ़ने नहीं दिया है। लेकिन बकरे की अम्मा कब तक खै़र मनायेगी यही देखना है। कहीं ऐसा ना हो कि अंत में तेल की फिसलन से न आम जनता बच पाए न ही सरकार।

मंगलवार, 27 मई 2008

कविता मत लिख चिरकुट

अनामदास की कविता

(अनामदास बित्ते भर के आदमी हैं। लेकिन इन्हें लघुमानव कतई नहीं कहा जा सकता । काम-धाम कुछ खास नहीं लेकिन शागिर्द लोग उस्ताद मानते हैं। वैसे तो मेरे अच्छे मित्र है लेकिन डंडा चलाने में पूरे समतावादी हैं। इसलिए मुझ पर भी नजरे इनायत हो गई । उस पर से धमकी कि ये फ़जिहत अपने ही ब्लॉग पर छापो वरना ....। भाई साहब भाषा में थोड़े भदेस हैं।इसलिए क्षमाभाव के साथ पढिए। )

धरती को कागज बना
सागर को स्याही
और लिख....लिख मार
जो भी दिल में आये
मेरे भाई।
वेदना में लिख
भावना में लिख
कभी क्षुब्ध हो जा
फिर उत्तेजना में लिख
तेरी विस्फोटक प्रतिभा
से आतंकित कर दे , समाज को
लिख दे कुछ भी रॉकेट छाप
मिला दे धरती आकाश
लोग कहें... छाती पर हाथ धर
वो मारा
भाई वाह, लिख दिया जहां सारा।
दांत किटकिटा
सिर के बल खड़ा हो जा
कलाबाजियां खाते- खाते लिखा कर
सरेआम मत बोल
बस वक्राकार हँस
बुद्घिजीवी दिखा कर
और कुछ भी लिखा कर

बेटे,आसाराम बन
रामचरित लिख
गुलशन को गुरू बना
कटी पतंग लिख
ब्लॉगर बन
पुण्यात्माओं की पूजा कर
खबरिया चैनल से रोटी जुगाड़ के
उनकी ही मां—बैन कर।
खबर की मौत हो
चाहे मौत की खबर
बेरहम और बाजारू
पत्रकारिता को लानत भेज
टेसू बहाया कर , नैतिकता पेला कर
जमी जमाई दूकान की मसलंद पर टिककर
निर्भय पादा कर ।
लेकिन,एक छोटी सी अरज है भाई
चाहे कुछ भी लिख- पोत
उखाड़-पछाड़
हमे कोई फर्क नहीं पड़ता मगर
सिर्फ लिखने के लिए
कविता मत लिख चिरकुट
हमारी जातीय संवेदना
सिहर जाती है।

शनिवार, 24 मई 2008

बेतुका सर्वे हैं बापू, सुभाष और भगत की तुलना....

वैसे तो इस तरह के सर्वे बड़े ही बेतुके किस्म के होते हैं कि कौन बड़ा है और कौन छोटा, ठीक उसी तरह जैसे माता और पिता में तुलना करने कह दिया जाए। लेकिन अगर मेरी व्यक्तिगत राय मानें तो गांधी का योगदान व्यापक और ठोस था। गांधी के आलोचकों का कहना है कि गांधीजी पूंजीवाद के समर्थक थे और उन्होनें कई दफा वर्णव्यवस्था को भी सही ठहराया था लेकिन उस समय की परिस्थितियों पर गौर करें तो आजादी के लिए जो भी उपलव्ध और सटीक तरीका हो सकता था, गांधी ने सबको अपनाया। जहां तक हथियार के बल पर आजादी की बात थी तो 1857 में यह प्रयोग बुरी तरह असफल हो चुका था..और लगभग यहीं हाल उसका (बहुत अनुकूल हालात होते हुए भी) सुभाष बाबू के अभियान में भी हुआ। क्रान्तिकारियों की छिटपुट लड़ाईयां सिवाय प्रेरणा देने के और कुछ नहीं कर रही थी और उसका कोई संगठित स्वरुप नहीं था। वो सिर्फ एक छोटे से पढ़े लिखे तबके तक सीमित थी। लोग कहते हैं कि अंग्रेजों ने 1947 में भारत को इसलिए आजादी दे दी कि उसे भारतीय सेना पर से यकीन उठ गया था। यह सुभाष बाबू के ही कारनामों का नतीजा था कि बंम्बई में 1946 में नौसेना विद्रोह हो गया..और अंग्रेजों को जल्दी ही भारत छोड़ने के लिए सोचना पड़ा। अंग्रेज और पश्चिमी ताकतें नहीं चाहती थी कि हिंदुस्तान में एक रिवोल्यूशनरी किस्म की सरकार बने जिसकी कमान एक व्यक्ति या सेना के हाथ में रहे। इसलिए सत्ता का हस्तांतरण जल्दवाजी में किया गया और कांग्रेस जैसी यथास्थितिवादी पार्टी के हाथों कमान सौप दी गई..जिससे व्यापक पश्चिमी हित और एक छोटे से एंग्लोइंडियन कुनबे पर कोई आंच न आए। अगर मान लिया जाए कि ये तमाम बातें सच भी हैं तो भी इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि कांग्रेस को आमलोगों की पार्टी बनाने और हिंदुस्तान जैसे अनिश्चित स्वभाव वालें मुल्क में गांधी ने एक ठोस और आमसहमति वाला लीडरशिप पेश किया। ये गांधी की ही शख्सियत थी जिसके बदौलत सरदार पटेल बिना खून खराबा कराए सैकड़ो रियासतों को हिंदुस्तान में समेट पाए। जिस काम को करने में यूरोपीय यूनियन अभी तक सफल नहीं हो पाया है..वो गांधी के चट्टानी व्यक्तित्व के बदौलत मिनटों में हो गया। ये गांधी ही थे जिन्होने अम्वेदकर के साथ बड़ी सूझ-बूझ से दलित समस्या का समाधान किया था। शायद उस हिसाब से हिंदू धर्म के प्रति उनका योगदान एतिहासिक है।

गांधी की सबसे बड़ी आलोचना क्या है?..मुसलमानों का तुष्टीकरण या पूंजीवादियों को प्रश्रय? क्या हिंदुस्तान जैसे मुल्क से सारे मुसलमानों को निकाल पाना संभव था। उस समय के हालात की कल्पना कीजिए...एक नदी-नाले, पहाड़ और घाटियों से अंटे पड़े मुल्क में जहां कोई कौंम पिछले हजार साल से रहती हो..जहां संचार के साधन बहुत ही कम थे..आप चुन-चुन कर कैसे तकरीबन 6 करोंड़ आदमी को बाहर फेंक सकते है?..कुछ हालात के बस और कुछ अपनी बेवकूफियों की वजह से जिन लोगों ने सरहद पार किया उनकी हालात आज भी किसी से छुपी नहीं है..?फिर हम ये उम्मीद करें कि गांधी ने उनके नरसंहार का फतवा क्यो नहीं दिया..?ये महज संयोंग नहीं है कि गांधी की आलोचना भी तभी से ज्यादा शुरु हुई है जब से मुल्क में एक खास तरह की विचारधारा ने जड़ जमाना शुरु किया है। दूसरी बात की जब से दलितों में चेतना आई है..अम्वेदकर की तारीफ मतलब, गांधी को गाली देना बन गया है। यह एक तरह से मौजूदा कांग्रेस पार्टी पर परोक्ष रुप से हमला भी है...क्योंकि इसी ने बड़े वाहियात तरीके से पिछले 60 सालों से ब्रांड गांधी को बेचा है। जहां तक पूंजीवादियों के समर्थन देने की बात हैं..गांधी जानते थे कि हजारों लेयर में बंटे इस देश की जमीन क्रान्ति के लिए उर्वर नहीं है..और आजादी के आंदोलन को चलाने के लिए एक असरदार मध्यमवर्ग को साथ में लेना जरुरी था। और सियासी गतिविधियों के लिए धन की भी आवश्यकता थी। और गांधी ने यहीं किया। सबसे बड़ी बात यह थी गांधी का उद्येश्य उस समय आजादी था..भावी सरकार का चरित्र नहीं। लेकिन बात करें सुभाष और भगत सिहं की..तो उन लोगों ने सत्ता हाथ में आने से पहले ही भावी प्रशासन का रुपरेखा दिमाग में बना ली थी..और जाहिरा तौर पर..वो समाजवादी माडल था। और इसी बात को लेकर आज के वामपंथी आज इतराते फिरते हैं कि सुभाष और भगत उनके विचारों के आदमी थे। लेकिन इन वामपंथियों से पूछा जाना चाहिए कि संघियों की तरह उस वक्त ये लोग आजादी की लड़ाई के लिए क्या कर रहे थे तो शायद इनके पास कहने के लिए कुछ भी न हों।
गांधी ने रणनीति के तहत चौराचौरी के वक्त आंदोलन को वापस ले लिया था। गांधी ने जब देखा कि आंदोलन अपनी धार खोता जा रहा है तो उन्होने अपनी उर्जा रचनात्मक कामों की तरफ मोड़ दिया। गांधी ने बड़े धैर्य से आंदोलन को धारदार बनाया था..और आधुनिक संचार के सारे साधनों का चतुराई से इस्तेमाल किया। अखवार, चिट्ठियां, भाषण, पर्चे सभी का इस्तेमाल गांधी ने किया। इस लेख का य़े मकसद नहीं कि भगत सिंह या सुभाष बाबू को कमतर आंका जाए..उनका योगदान था लेकिन वो सर्वांगीन नहीं था। गांधी या सुभाष की तुलना के लिए कोई भी लेख छोटा साबित हो सकता है..विशेषकर तब जब विश्लेषण के लिए आपने उस एतिहासिक पात्र को चुना हो जो संभवत पिछली सदीं में सबसे ज्यादा वार विश्लेषित किया गया हो। भगत सिंह का बेहतरीन आना बाकी था..वो बेवक्त दुनिया से चले गए..लेकिन अपनी कार्यशैली का संकेत तो वो छोड़ ही गए थे।सुभाष बाबू का बेहतरीन ये था कि उन्होने मुल्क की आजादी के लिए बुलंद हौसलों के साथ आरपार की एक प्रशंसनीय लड़ाई लड़ी.. लेकिन सवाल यह है कि अगर गांधी अगर सीन में न भी होते तो क्या सुभाष या भगतसिंह सिर्फ हथियारों के बल पर आजादी ले लेते... अगर हां तो क्या वो आजादी सबको समाहित करने वाली होती..यहीं वो सवाल है जो फिर से हमें गांधी की प्रसांगिकता की याद दिलाता है।

वाटर प्रुफ

शिखर

कभी- कभी लगता है
मेरी आँखे वाटर प्रुफ है
तभी तो बाहर का पानी बाहर
और भीतर की आर्द्रता
हमेशा भीतर गलती सडती है.....
सचमुच
वाटरप्रुफ चीजो के अन्दर
पानी ही नही
धूप का भी निषेध होता है
तभी तो भीतर की चीजे
सूख नही पाती
बल्कि सीलन समाते समाते
भरभराने लगती है
और फिर सुखने की तडप मे
शुष्क हो जाती है

बुधवार, 21 मई 2008

पायदान पर पिता

प्रभात रंजन
( संदर्भ -- हुआ यूं कि कुछ दिन पहले अनायास इंडिया टूडे के विशेषांक पर नजर पड़ गई । इसमें 60 महानतम भारतीयों का चयन है... (मापदंड का जिक्र नहीं )। इसमें दस लोगों की एक और सूची है जो इंटरनेट और दूसरे तरीकों से जनता की राय लेकर बनाई गई है । सबसे ज्यादा वोट भगतसिंह को मिले है और उसके बाद सुभाष चन्द्र बोस को। तीसरे पायदान पर महात्मा गांधी हैं ।)

उन दिनों तमाम दूसरी नई चीजों के अलावा गांधी जी पर बहस करना भी एक नया और अजीब शौक था । जिस मैदान में हम क्रिकेट खेलते थे ,उसके एक कोने में गांधी जी की एक प्रतिमा थी। और यह भी एक वजह थी कि रोज शाम में खेल चूकने के बाद मगज़मारी का जो सिलसिला शुरू होता था उसमें अक्सर गांधीजी ही छाये रहते थे । वैसे ये बहस क्लास रूम से लेकर सब्जी बाजार तक कहीं और कभी भी हो सकती थी .... बस दो- चार मित्रों की जरूरत होती थी । वैसे करने को तो और भी कई बातें थी , मसलन क्रिकेट या शहर में हुई कोई वारदात लेकिन जो उत्तेजना गांधी जी के मामले में होती थी , उसका कोई सानी नहीं था। गांधी जी के नाम पर जो बवाल होते थे उसकी तह में दो - तीन ही लोग थे। भगत सिंह , सुभाष और नेहरू। और कुल मिलाकर दो- चार बातें .... जो अहिंसा और गांधी जी के मुस्लिम प्रेम से जुड़ी थी । कभी-कभार बेतुकी और बेहुदा बातें भी इसमें शामिल हो जाती थी, लेकिन मोटे तौर पर यार लोग इतिहास के इर्द – गिर्द रहने का प्रयास करते थे । ये अलग बात है कि सुनी – सुनाई हमारी बातों में इतिहास, हमारी उम्र जितना ही होता था। आखिरी बात .... उन दिनों कभी ऐसा मौका नहीं आया जब भगत सिंह , सुभाष और नेहरू को लेकर गांधीजी ने भला बुरा नहीं सुना हो । यहां तक कि देश को तबाह ओ बरबाद करने का संगीन इल्जाम भी उनके ही मत्थे था । भगत सिंह और सुभाष की बात करते करते यार लोग इतने भावुक हो जाते कि एक चुप्पी सी पसर जाती और इस खालीपन में नाथुराम गोडसे की आत्मा गोते लगाने लगती थी।
खैर होंठो के ऊपर मूंछ का एहसास अभी ताजा था , और रगों में खून ने उबाल मारना तुरंत ही शुरू किया था । जो था ... लाजिमी था।
ये हाई स्कूल के दिन थे ।

फिर एक लम्बा अरसा गुजर गया। गुजरे सालों में देश बहुत बदला। इतिहास क्योंकि बदल नहीं सकता था , इसलिए बदला नहीं जा सका। गांधी जी बदस्तूर राष्ट्रपिता बने रहे और भगत सिंह शहीदेआजम । लेकिन एक चीज और नहीं बदली..... गांधी जी और भगत सिंह को लेकर हमारी किशोरवय सोच । हाई स्कूल के छात्रों की तरह आज भी गांधी जी के खिलाफ बोलना बौद्धिक दबंगई के लिए जरूरी है। दूसरी ओर दीवार पर क्रांति लिखने वालों की एक जमात आज भी भगत सिंह को झंडे की तरह उठाए हुए है। कोई इंटरनेट पोल के माध्यम से जानने का बचकाना प्रयास करता है कि गांधी बड़े या भगत- सुभाष । और लोग बेचारे ..... तीसरे पायदान पर फेंक देते है महात्मा को ।

यूं तो हम कई मसलों पर लगातार बहस में हैं..... जाति , धर्म , सांप्रदायिकता , शायर ,समाज और न जाने क्या – क्या । लेकिन गांधी जी पर भी गाहे बिगाहे एक गंभीर बहस की दरकार है ।
एक नई बहस इस लिए भी जरूरी है , क्योंकि अब हम हाई स्कूल में नहीं है।
आइए शुरू करें .....।

मंगलवार, 20 मई 2008

अब क्या करेगी सरकार ?

ओमप्रकाश

मुहावरा मुंह चिढ़ाने का सही उदाहरण शायद इससे बेहतर कोई नहीं हो सकता। महंगाई का आंकड़ा जैसे-जैसे ऊपर जा रहा है वैसे-वैसे हमारे महान अर्थशास्त्री चिदंबरम साहब और प्रधानमंत्री महोदय की फ़जीहत भी नए रिकॉर्ड बना रही है। आज मुद्रास्फीति 7.83 फीसदी तक जा पहुंची है, यानी 44 महीनों में सबसे ज्यादा। दावों पर दावे लेकिन मुद्रास्फीति 8 वें पायदान पर पहुंचने का बेताब सबको चिढ़ा रहा है। कर लो जो करना है। ये महंगाई ज्यादा ख़तरनाक दिखती है। इसलिए क्योंकि सरकार के पास करने को ज्यादा कुछ बचा नहीं है। पिछले दिनों ही रिज़र्व बैंक ने बाज़ार से पैसा हटाने के लिए अपने नगद आरक्षित अनुपात में 75 बेसिस अंक तक की बढ़त की। उम्मीद थी कि बाज़ार से 26 से 29 हज़ार करोड़ रुपयों तक की तरलता कम हो जाएगी। नतीजा लोगों के पास पैसे कम होगें तो, मांग कम होगी और महंगाई पर लगाम लगेगी। सरकार ने आपूर्ति ठीक करने के दावे किए लेकिन परिणाम दिखता नहीं। जानकार चेतावनी दे रहे हैं कि महंगाई का ये सूचकांक 8 फीसदी के ऊपर जाकर रहेगा।
सरकार की इन कोशिशों को धक्का रुपए की कमज़ोरी के कारण भी लगा है। पिछले साल जहां परेशानी इस बात की थी कि रुपया ज़रुरत से ज्यादा इठला रहा था तो इस बार मामला उलटा है। चिंता का कारण पेट्रोलियम के बढ़ते दाम भी हैं। वहीं, सरकारी पेट्रोलियम कंपनियां भी बाप-बाप कर रही हैं। रुपए के कमज़ोर होने से आयात महंगा हुआ है, जिसका सीधा असर पेट्रोलियम उत्पादों पर पड़ा है। लेकिन चुनावी साल में सरकार भी बेबस बनी काग़ज काले किए जा रही है। नतीजा, सब्सिडी का बोझ सरकार पर बढ़ता जा रहा है। लग रहा है कि ये सब्सिडी का बिल जीडीपी के 5 फीसदी तक जा सकती हैं। ऐसे में एक सवाल और कि सरकार के बजटिय घाटा का क्या होगा।
महंगाई के साथ साथ एक और बात के लिए तैयार रहिए। वो है तेज़ जीडीपी रफ़्तार आपको रेंगती नज़र आ सकती है।

शनिवार, 17 मई 2008

तेरी याद में

गोपी कृष्ण सहाय

चले गए तब ज्ञात हुआ , अपना खोना क्या होता है !
याद में तेरे साथी मेरे , घर आंगन भी रोता है !!
वही आंगन ढ़ूढते थे तुम , मै कहीँ छुप जाता था
कई सवाल पूछोगे ये , सोच नजर चुराता था !!
बड़े जटिल लगते थे , प्रश्न तेरे सीधे सादे !लौट के ना आओगे तुम , इस मन को समझाता हूँ !
पर तेरी यादों की दस्तक , हर कोने मे पाता हूँ !!
माना अब हमने तेरे बिन , मुस्कुराना सिख लिया !
वक्त के साथ अकेले ही , कदम मिलाना सिख लिया !!
अगले जनम तुमको इश्वर , फिर हमसे ही मिलवादे !

जीवन मृत्यु

आज मै चुपचाप बैठी सोच रही थी

अपने ही भावो मे कितनी उलरही थी

कि जिन्दगी और मौत कितनी करीब है

एक संसार मे लाती है तो दुसरी ले जाती है

लेकिन शमशान घाट पर ही

जाकर वैराग्य क्यो जागते .है

और मृत्यु पर ही सारे सगे सम्बन्धी ,

बिलख बिलख कर रोते क्यो है

शायद यहाँ हम एक पूरी जिन्दगी

का अन्त पाते है.

मरने वाले तो मर जाते है

पर कुछ लोग उनकी मृत्यु मे

अपना सारा जीवन तलाशते है(मेरी माँ)

शुक्रवार, 9 मई 2008

मासूम बुश और मुटाते हम

ओमप्रकाश
हम फिल्मों में काफी पहले से देखते आ रहे हैं कि जुड़वा भाईयों के बीच इतना प्यार होता है कि एक को मारे तो दूसरे को लगे। ऐसा ही कुछ रिश्ता हमारा अमेरिका के साथ हो गया है। खाएं हम पेट दरद हो उनका। अरे, अब ये दरद नहीं है तो और क्या है। बुश साहब कहते हैं कि पूरी दुनिया की महंगाई के लिए भारत का मध्य वर्ग ज़िम्मेवार है। 35 करोड़ का विशाल भारतीय मध्य वर्ग। महाशक्ति अमेरिका की पूरी आबादी से भी बड़ा। राष्ट्रपति महोदय का कहना है कि भारत का ये वर्ग खा खाकर मुटा रहा है। लेकिन अफसोस कि उनके ही इशारे पर चलने वाले संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े उन्हें झूठा साबित करते हैं। हमारे मासूम से बुश साहब को कोई बताए कि पिछले सालों में अमेरिका में अनाज की खपत 12 फीसदी की दर से बढ़ी है जबकि हमारे यहां सिर्फ 2.5 फीसदी। अरे, सिर्फ पिछले साल की बात करें तो अमेरिका में अनाज की खपत 31 करोड़ टन से भी ज्यादा रही तो वहीं, भारत में 20 करोड़ टन से भी कम। अब क्या बताए बेचारे बुश पूरी दूनिया की फिकर उन्हें इतना सताती है कि इन छोटी मोटी बातों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जा पाता।
हां, बुश महाश्य को ये भी बता दें कि खु़द उनके ही देश में मक्का को बड़े पैमाने पर जैव-ईंधन के लिय इस्तेमाल किया जा रहा है। साथ ही जानकार बताते हैं कि 2010 तक अमेरिका में 30 फीसदी मक्का का इस्तेमाल एथेनॉल बनाने के लिए होगा। लेकिन अब ये तय करना होगा कि पूरी दुनिया के 80 करोड़ कार मालिकों के लिए ईंधन तैयार करने में अनाज का लगाना है या भूखमरी के शिकार 1.5 अरब लोगों का पेट भरना।

गुरुवार, 1 मई 2008

मल्ल युद्ध

मनोज भाई को बतकही के दौरान सुनना एक शानदार अनुभव है लेकिन पढ़ना तो बस कमाल है । तलवार की नोक से गुदगुदाने की कला जानते है, बशर्ते सुनने वाला लापरवाह न हो।
मनोज मेहता आजकल इंडिया न्यूज में विशेष संवाददाता हैं। अपने संकलन से एक कविता हलफ़नामा के तौर पर भेजी है।

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ताल ठोकते
आमने सामने दो वीर
नगाड़े - ढोलक
चीख – पुकार
उमड़ता हुआ पूरा गांव
मिट्टी और पसीने का
मुंह में फैला – एक सा स्वाद
अवसर फिसलने की निराशा
दबोच लेने के
तमाम पैंतरों के बीच
जरूरी नहीं है यह जिक्र
कि इनके पास होता था
हजार – हजार हाथियों का बल
ये राजा होते थे
सेनापति होते थे
और हस्तिनापुर , मगध , काशी
हर जगह पाये जाते थे
ये पी जाते थे
दसियों मन दूध
सेरो घी
लगाते थे
कई – कई योजन का चक्कर
हजारों बैठकें
और ललकार भर देने से
मच जाता था घमासान
जूझते थे हफ्तों – अथक

अब कोई वैसे ललकारे
तो हंसी होगी उसकी
रणनीतिक भूल
कि न्यूज चैनलों के हित ही
अब लड़े जाते हैं युद्ध
कि जब तक वह कसेगा अपनी लंगोट
तब तक खुल जाएगा
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का पिटारा
और उसके मसखरे
निकल कर टहलने लगेंगे
वायरस की तरह
लोगों के दिमाग में
कि गिर जाएगा
शेयर बाजार का पहाड़ उसकी पीठ पर
और वह मन ही मन
पूजता रह जाएगा
महावीर जी को

मौका ऐसे ही किसी कारण
चूक जाएगा कोई एक
और दूसरा
धम्म से जा बैठेगा
उसकी छाती पर
उमेठने लगेगा उसकी गर्दन

शोर का एक बवंडर उठेगा
थकान , प्यास
ऐंठती हुई अंतड़ियों
और पसीने से लिथड़ा
अखाड़े की छाती से उठ कर
वह दौड़ने लगेगा
चक्राकार
ढोल – नगाड़े
बरसते हुए पैसों
और जयकार के बीच
एक हाथ में
प्रतिरोध का
पूर्व पाषाणयुगीन विकल्प लिए।