सोमवार, 26 अप्रैल 2010

तुझमें कोई कमी नहीं पाते

फिराक गोरखपुरी की गजल

बन्दगी से कभी नहीं मिलती
इस तरह ज़िन्दगी नहीं मिलती

लेने से ताज़ो-तख़्त मिलता है
मांगे से भीख भी नहीं मिलती

एक दुनिया है मेरी नज़रों में
पर वो दुनिया अभी नहीं मिलती

जब तक ऊँची न हो जमीर की लौ
आँख को रौशनी नहीं मिलती

तुझमें कोई कमी नहीं पाते
तुझमें कोई कमी नहीं मिलती

यूँ तो मिलने को मिल गया है ख़ुदा
पर तेरी दोस्ती नहीं मिलती

बस वो भरपूर जिन्दगी है ’फ़िराक़’
जिसमें आसूदगी नहीं मिलती

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

उफ ये तेरी हठधर्मिता

आजकल विनोद जी को पढ़ रहा हूं । खिलेगा तो देखेंगे । मौजूदा दौर में अपनी भाषा की ताकत का एक उदाहरण राग दरबारी है।अरूण कमल जी की पंक्तियां याद आ रही है कि भाषा की सभी हड्डियां चटका के शुक्ल जी ने रागदरबारी की भाषा का ईजाद किया है । यकीनन रागदरबारी अपनी भाषायी उपलब्धियों में बेजोड़ है। लेकिन विनोद जी के यहां मुहावरे पर जोर नहीं है,जोर है बिम्ब पर । गध में कविता जैसे बिम्बों की रचना विनोद जी की अपनी खासियत है । इससे पहले 'दीवार में खिड़की'को पढ़ते हुए भी अपनी भाषा की अनदेखी खूबसूरती मुग्ध कर गई थी। विनोद जी निश्चित रूप से प्रेमचंद की उस परंपरा के हिस्से हैं जिसमें सीधी- सादी सरल भाषा के माध्यम से जादू जगाने का काम किया जाता है । तत्सम और सामासिक शब्दों के बजाय ठेठ गंवारी बोली से सृजनात्मकता कैसे होती है , ये नागार्जुन के यहां भी देखा जा सकता है और त्रिलोचन के यहां भी। नामवर सिंह की एक बात याद आती है कि जनकवियों की कविताएं देखने में बड़ी सहज और आसान लगती है लेकिन अगर लिखने चलिए तो आटे दाल का भाव पता चल जाता है । खैर भाषा को लेकर बात इसलिए छेड़ी है कि, मैं जिस पेशे में हूं वहां भी भाषा को लेकर बड़े बवाल हैं । हुआ यूं कि कल एक स्क्रीप्ट पर नजर पड़ी जिसमें 'हठधर्मिता' जैसे शब्दों का सयास इस्तेमाल किया गया था । बाद में पता चला कि लिखने वाले सज्जन अब तक प्रिंट मीडिया से ताल्लुक रखते थे और अभी अभी इलेक्ट्रानिक मीडिया की गलीज दूनिया में कदम रखा है । बड़े पद पर हैं और रसूख रखते हैं । मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर उनका, उनकी हठधर्मिता की ओर ध्यान दिलाया जाए तो उनका कहर टीवी की वाहियात भाषा पर टूट पड़ेगा । शायद कह दें कि हम टीवी वालों को भाषा आती ही नहीं । असल, सवाल ये है कि प्रिंट में भी ऐसे शब्दों के इस्तेमाल का क्या तुक है जबकि पत्रकारिता के ककहरे में ये बात समझाई जाती है कि भाषा आसान और पंक्तियां छोटी होनी चाहिए । देश के सभी बड़े पत्रकार , चाहे प्रिंट के हो या टीवी के , सहज-सरल भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं । संप्रेषण में सुविधा होती है । और जहां तक बात है विद्वान टाइप लोगों की तो , मैं फिर से नामवर जी की पंक्तियां दुहराना चाहूंगा कि पहले आसान भाषा में लिख कर दिखाइए- आटे दाल का भाव पता चल जायेगा । एक बात और , अच्छा लिखने के नाम पर तत्सम शब्द और संयुक्त वाक्यों का इस्तेमाल करने वाले लोगो की जमात अकेली नहीं है । एक और जमात है , खासकर के टीवी की दूनिया में, जो सयास उर्दू के कठिन अल्फाजों का इस्तेमाल करती है । इनका भी मानना है कि फकत उर्दू के इस्तेमाल से स्क्रीप्ट जबरदस्त हो जाती है । भले ही उसके मायने न लिखने वाले के समझ में आए और ना सुनने वाले के । भाई लोग साठ सत्तर की हिन्दी फिल्मों की तरह उर्दू को टीवी के लिए बड़ी जरूरी चीज समझते हैं । और लिखते जा रहे हैं । दोनो जमातों को नसीहत देने का मेरा कोई इरादा नहीं ।आसान भाषा में गंभीर बात कहने की ,या कह सकने की कला अगर वाकई सिखनी हो तो हरिशंकर परसाई को पढने की नसीहत जरूर दूंगा ।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

तेरा जाना दिल के अरमानों का लूट जाना

भैया जी का इरादा खराब नहीं था । बस बात इतनी है कि निशाने पर आ गए । राजनीति के शिवपालगंज में थरूर भैया की एंट्री रंगनाथ की तरह हुई । तौर तरीकों में विदेशी थरूर भैया देसी माहौल में खप पाते , इससे पहले ही खपा दिए गए । क्या करें, इतने कम दिनों में गंजहापन सिखना भी आसान नहीं था । खैर ये बात तो सरेआम खुद थरूर साहब ने भी मानी है कि राजनीति में नौसिखुआ होने का खामियाजा उन्हे भुगतना पड़ा है । लेकिन भैया जी ने गलतियां भी कम नहीं की । कैटल क्लास के बवाल पर ‘बाल बाल बचे’ की चेतावनी को थरूर ने गंभीरता से लिया नहीं । और विदेश मंत्रालय की फाइलें निपटाते निपटाते क्रिकेट में उलझ गए । आईपीएल की कोच्चि टीम से थरूर का लगाव जायज है और किसी को इस पर भला क्या ऐतराज हो सकता है । शरद पवार या अरूण जेटली पर तो कभी किचड़ नहीं उछला । शिवपालगंज में ऐसे मामलों पर कोई ध्यान देता भी नहीं । दिक्कत तब हुई जब थरूर ने राजनीति और क्रिकेट के असली संबंधों को समझे बगैर गलत शॉट लगा दिया । आईपीएल के गोरखधंधे में जरूरत डेलीकेट कवर ड्राइव की थी और आपने सीधे सहवाग के अंदाज में लांग ऑन पर छक्का मार दिया । अब क्या था, बौखला गए मोदी साहब । दूसरी गलती , शिवपालगंज की राजनीति में सब कुछ माफ है लेकिन जब किसी गैर राजनीतिक सुंदर महिला की एंट्री होती है तो बवाल होना तय है । थरूर के चाहने भर से शिवपालगंज की हिप्पोक्रेसी रातों - रात तो दूर नहीं हो सकती । इसलिए नहीं हुई और अति आत्मविश्ववास के कारण थरूर भैया नप गए ।सच पूछिए तो, भैया जी आपसे बड़ी उम्मीदें थी। आपकी अंग्रेजी और आकर्षक व्यक्तित्व, देश के बड़े काम आ सकता था । मैडम का भी यही मानना था । लेकिन क्या करें ,हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले । कांग्रेस के शनिचरों को आकलन आपने ठीक से नहीं किया और नतीजा...बड़े बेआबरू होकर कूचे से हम निकले । अब फुर्सत है , आराम से टिवटर पर देश विदेश के तरक्की पसंद लोगों से गूफ्तगू कीजिए । शुभकामनाएं

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

सानिया और संगीता

सानिया मिर्जा की शादी में देश और खासतौर पर मीडिया ने बड़ी रूचि दिखाई । रोने गाने वाले अपनी- अपनी कला की नुमाईश करते नजर आए। बहरहाल शादी हो गई और देश की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा । ऐसा लगता था कि सानिया की शादी के बाद देश पर भारी आपत्ति आने वाली है। देश की शान, सानिया जब पाकिस्तान की नूरे नजर हो जाएंगी तो भारतवासियों की गर्दन को हमेशा के लिए लकवा मार जायेगा । लटकी रह जायेगी बेचारी । कहने वाले तो सानिया की बिदाई को कोहेनूर हीरे की जुदाई से जोड़ कर देख रहे थे । और इसीलिए जार जार टेसू बहा रहे थे । बहरहाल तमाशा नहीं हुआ और बड़े आराम से सानिया के हाथों पर मेंहदी सजी और वो दुल्हन भी बन गईं ।बहरहाल सानिया को देश की ओर से एक बड़ा ही हसीन तोहफा मिला है। उज्जैन के एक दंपत्ति ने कुछ साल पहले सानिया की उपलब्धियों से प्रभावित होकर अपनी बेटी का नाम सानिया रखा। अब उन्होने इसका नाम बदलकर संगीता रख दिया है । इस तरह सानिया अब संगीता हो गई है । जी, हमारी अपनी सानिया शादी के बाद हमारे लिए इस हद तक परायी हो गयी कि अब उसका नाम भी गंवारा नहीं । बात बड़ी साफ है । राष्ट्रवाद की कच्ची समझ के कारण उज्जैन के इस दंपत्ति को सानिया से अचानक नफरत हो गई । वैसे संगीता अगर सानिया ही रहती तो क्या फर्क पड़ता । अपने खेल से देश को सम्मान दिलाने वाली सानिया हमें टेनिस की वजह से ही अजीज है । वैसे ही जैसे किसी दौर में स्टेफी ग्राफ या अब विलियम्स बहने हैं । स्टेफी शादी के बाद अगर अमेरिका चलीं गयीं तो क्या ये तकलीफ किसी जर्मन को हुई होगी । खेल और राष्ट्रवाद का रिश्ता तो फिर भी समझ में आता है लेकिन किसी खिलाड़ी की निजी जिन्दगी को राष्ट्रीय धरोहर मान लेना क्या ठीक है । खैर इस मुद्दे पर अलग अलग राय हो सकती है । बहरहाल मेरी तरफ से सानिया को ढ़ेर सारी शुभकामनाएं । संगीता को भी ढ़ेर सारा प्यार ।