शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

गांव लौट जाना चाहता हूं

मित्रों को मजाक लगता है.कुछ ज्यादा संवेदनशील मित्र इसे काम का दबाव मानते हैं.कुछ ऐसे भी हैं जो इसे बकवास करार देंगे.दरअसल मेरी ख्वाहिश ही कुछ ऐसी है जिसे लोगबाग गंभीरता से नहीं लेते.मैं वाकई गांव वापस लौट जाना चाहता हूं.इसके पीछे कोई ठोस वजह नहीं है.शुरू शुरू में ये ख्याल एक लहर की तरह आया.लेकिन अब गाहे बिगाहे परेशान करता है.दावे के साथ कह सकता हूं कि इस ख्याल की वजह नास्टेल्जिया नहीं है.गांव में जाकर कोई सामाजिक आर्थिक क्रांति करने का इरादा भी नहीं.बस गांव में जाकर बसना चाहता हूं.हालाकि वहां से कभी उजड़ा हूं, ऐसा भी नहीं.मैं तो शुद्ध कस्बाई हूं.लेकिन गांव करीब था इसलिए आना जाना लगा रहा.अब नए सीरे से गांव में बसने को जी चाहता है.वैसे ही जैसै मेरे पूर्वज बसे होंगे पहली बार.मैं जानता हूं ये फैसला इतना आसान नहीं. जीवन यापन का सवाल एक बार फिर मुंह बाए खड़ा होगा.इसके अलावा कई साल दिल्ली जैसे शहर में गुजारने के बाद ठेठ गांव में जाकर रहने की अपनी चुनौतियां होंगी.दिक्कतें होंगी इतना जानता हूं.फैसले में हो रही देरी भी इसी वजह से है.लेकिन सच्चाई यही है कि इस शहर में होने की एक भी वजह मेरे पास नहीं है.किसी भी दूसरे प्रवासी की तरह इस शहर ने मेरी भी पहचान सालों पहले खत्म कर दी थी.पढाई लिखाई तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन अब इस शहर का क्या करूं.कुछ ना करते करते एक दिन मैने खुद को इस शहर में रोजगार करते पाया.इस शहर ने मुझे रोजगार दिया है और इसके एवज में मुझसे हरेक चीज ले ली है जो मेरी अपनी होती थी.यहां तक कि मेरी आदतें भी.कई महिने गुजर गए, गालिब को नहीं पढ़ा.श्मशेर मेरे सामने धूल फांकते उदास बैठे रहते है.कमोबेश मेरे घर में कुछ सालों से उपेक्षा के ऐसे ही शिकार हैं मुक्तिबोध रघुवीर सहाय धूमिल और मजाज.यकीन मानिए जिन्दगी बड़ी ही नीरस हो चली है.कुछ इसकी वजह मेरे काम का अपना स्वभाव भी है.लेकिन काम करने की मजबूरी समझ में नहीं आती.किसी फरमाबर्दार नौकर की तरह अपने काम को अंजाम देता हूं.मैं भी किसी शाह का मुसाहिब बन के इतराना और काम से मुंह चुराना चाहता था.कर नहीं पाया.इसलिए अपने काबिल मित्रों की शिकायत भी नहीं करता.मेहनत के बल पर अपने आर्थिक हालात बेहतर करने का हौसला देर तक कायम रखा, लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता.मेरे मामले में भी नहीं हुआ.नतीजा, फाकेमस्ती ना सही लेकिन गुरबत का दौर आज भी जारी है.अपने सुबहो शाम अपने काम के नाम करके, गधा बन गया हूं.हालाकि इसी काम की बदौलत कई गधे सफलता के शिखर पर हैं.खैर ये तो अपनी अपनी काबिलियत और किस्मत की बात है.मेरे दिन नहीं फिरे, ना सही.लेकिन तब इस शहर में होने का औचित्य क्या है.खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए...सवाल ये है कि किताबों ने क्या दिया मुझको.कुछ नहीं.एक बेहद अतार्किक और बेमकसद सी जिन्दगी.दोस्तों इसी जिन्दगी से भागना चाहता हूं.पहली बार हालात से भागना चाहता हूं.मैं गांव लौट जाना चाहता हूं,अपने खेतों में जहां किसी ने, कभी गुलाब की फसल उगाने की कामना की थी.यकीन कीजिए गुलाब, खबरों से ज्यादा अहमियत रखते हैं (घोर निराशा के मूड में)

10 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

हमें तो बिल्कुल मजाक नहीं लग रहा किन्तु बस निराशावश अगर यह निर्णय ले रहे हैं तो शायद यह उपाय नहीं..हँसी खुशी हो जाईये, मन बहला लें फिर सँसते खलते विचार करें और अगर उचित लगे तो अवश्य ही गाँव लौट जायें. शुभकामनाऐं.

सतीश पंचम ने कहा…

क्यों निराश होते हो दोस्त। शहरी उत्पीडन तो लगभग हम सब शहरी लोग झेलते हैं, गाँव की याद तो सभी को सताती है लेकिन गांव तभी लौटना चाहिये जब लगे कि यहाँ भी शहर की तरह ही कमा सकते हैं। गाँव के खर्चे भी अब शहरो की तरह हो गये हैं।
एक बात कहूँगा - गाँव भी तभी अच्छा लगता है जब जेब में पैसे हों वरना यही गाँव काटने को दौडेगा। ऐसा भी नहीं है कि गाँव स्वर्ग के रूप हैं....वहाँ भी गंदी राजनीति, बेडौल माहौल और गलीज इंसानों से पाला पडता है । एक मायने में गाँव शहर के कांईयेपन से मुकाबले की राह पर चल रहा है। इसलिये, क्या गाँव और क्या शहर.....हर ओर माहौल लगभग एक सा लगेगा। आप गाँव लौटेंगे तो कुछ दिन तो आपके गाँव गुरबे के लोग सिर आँखों पर बिठा कर रखेंगे लेकिन जब वहीं रहने लगेंगे तो एक प्रकार का Frictional Relation develop होना शुरू होगा और तब शायद आप को भान हो कि क्या शहर क्या गाँव...सब एक बराबर।
मेरी राय तो यही है कि थोडे दिन के लिये हो आओ ....थोडा मनसायन हो जायगा।
कभी कभी मैं भी इसी गाँवलेरिया नाम की बीमारी का शिकार हो जाता हूँ :)

नीरज गोस्वामी ने कहा…

क्या करें हम सब उस खूंटे से बंधे हैं जिसे तोड़ना आसान नहीं....आजादी कीमत मांगती है जो दे सकता है वो ही पाता है...
नीरज

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

प्रभात जी, मैं आपको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता, फिर भी मुझे लगता है कि इस व्यक्ति से हजार बार मिल चुका हूं। आप समझ गये होंगे । आप जिस मनस्थिति में यह पोस्ट लिख रहे हैं, मैं उस मनस्थिति के साथ हर पल सांस लेता हूं। दरअसल, शहराती जिंदगी का दोहरापन, सीधे-सादे, ईमानदार और संवेदनशील आदमी को रास नहीं आतe। ऐसी परिस्थिति में हम उस समाज की कल्पना करते हैं, जहां कुछ भी हो, कम से कम ओढ़ी हुई जिंदगी न हो। गांव इसलिए हमें बरबस याद आते हैं। लेकिन जब हम गांव पहुंचते हैं, तो यह सपना चूर-चूर हो जाता है। जिस गांव को हम आज से दस-पंद्रह वर्ष पूर्व देखे थे, वह बदल चुका है। भले ही शहराती दोगलेपन वहां अब भी कम हैं, लेकिन स्थिति मनवांछित भी नहीं है। गरीबी और पैसे ke मोह के अंतर्द्वंद्व ने गांव को गांव नहीं रहने दिया है।
दूसरी बात, हम और आप जो काम कर सकते हैं, उसके लिए गांव में कोई स्पेश नहीं है। इसलिए जो भी फैसला लें, सोच विचार कर लें। हम गांव जरूर लौंटे, लेकिन अपने लिए नहीं, गांव के लिए। ऐसे दिन के इंतजार में....

Batangad ने कहा…

सतीश पंचम की बात समझिए। और, कुछ क्षणों की निराशा में तो कोई फैसला करना ही नहीं चाहिए।

subodh ने कहा…

जिंदगी अपने हिसाब से चलती तो क्या था... हर चीज अपने हिसाब से होती तो क्या था... वक्त हमसे मोहलत लेकर बढ़ता तो क्या था...लेकिन ख्वाहिशें भी अब बजारू हो गई हैं...सपने भी अपने नहीं रहे...हमारी जिंदगी कुछ इस तरह खूंटों से बंध गई है...तोड़ दें तो हंगामा मच जाए...ना तोड़े तो खुद खाक हो जाएं...

बेनामी ने कहा…

कुछ लोग, मिलेंगे यहीं...जिनमें आपका पूरा गांव बसा होगा...कुछ लोग मिलेंगे यहीं, जो के साथ बैठ गाबिल औऱ शमशेर को जीएंगे...कुछ लोग मिलेंगे यहीं बेमतलब और अतार्किक जिंदगी को मायनों से भर देंगे...वहां और यहां का फर्क बस लोगों का है...मन का है...गुलाब चाहे खेतों में खिले या क्यारियों में....गुलाब ही होता है...उसे खिलते देकने की तमन्ना एक सी होती है...

बेनामी ने कहा…

आप गांव जाने चाहते थे...लोग कहीं और भेज देना चाहते हैं...अजीब हैं ये लोग खुद नहीं है तो चाहते हैं आप भी नहीं रहे...पर आप गांव लौटेंये न लौटे...पर मुझे भरोसा है आपका गांव को यहां जरूर ले आएंगे..बस, लगे रहिए और अलर्ट रहिए..नीरज सारांश

Unknown ने कहा…

Prabhat ji, kaise hain yaar, main to aaj aapke bare me jyada jana. Yese mujhe hindi ki koi jyada jankari nahi hai phir bhi aapke blog ke contents thoda padha. Bahut accha laga. Aap jahan bhi rahen khush rahen. Wish u all the best. Purushottam Chauhan......
HR Deptt. India News

shiva jat ने कहा…

nirasa nahi hai yeh dil ki awaz hai sabhi ke ander uthti hai lekin ham kabul nahi karte apne kabul kiya nice ---aap ek bar mera bhi blog bhi padhkar dekhe--http://jatshiva.blogspot.com/