सुनन्दा राय
-इलाहाबाद से ये कविताएं सुनन्दा ने भेजी है... एक हल्के से संकोच के साथ । लिखा है - कच्चा पका सा कुछ लिखती हूं , जिसे मुमकिन है लोग, कविता की श्रेणी में ना रखे - लेकिन पूरी होने के बाद तो कविता स्वायत्त होती है जिस पर लिखने वाले का भी कोई जोर नहीं चलता ..... इसलिए अब पढ़ने वालों की राय ही मान्य होगी
(एक)
रोज टूटते हैं
पत्ते-
दरख्त नहीं मैं जानती हूं
पतझड़ के बाद का दुख ।
(दो)
सो जाती हूं तब
पैर दौड़ते हैं
तुम्हारे पीछे - पीछे ।
हाय री- गुड़िया रानी
कित्ता - कित्ता पानी ।
(तीन)
नुक्कड़ की दुकान से
दस रूपए का गुलाब खरीदकर
दिया उसने
और कहा - प्यार
वह एक शरीफ दुनियादार आदमी था।
(चार )
दो अंगुल की बुद्धि
मां की
चावल का पानी नापती रही
मैं दो अंगुल से देखती हूं
दुनिया
कितने पानी में ।
बुधवार, 20 अगस्त 2008
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4 टिप्पणियां:
वाह! बहुत सुन्दर.बहुत उम्दा.
यहाँ प्रस्तुत करने का आभार.
अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो ...................तीसरा मुर्तक बहुत बढञिया है..........
raviwar में आपका लिंक देखा तो लगा कि पता नहीं क्या होगा. शायद अरविंद जैननुमा कोई बात. लेकिन यहां तो मामला ही दूसरा है. कविताएं तो बहुत सुंदर हैं. रही बात कविता होने या न होने की तो यह संशय तो आज भी अशोक वाजपेयी को भी है और विष्णु खरे को भी.
रोज टूटते हैं
पत्ते-
दरख्त नहीं मैं जानती हूं
पतझड़ के बाद का दुख -----------सुनंदा आपने बहुत सलीके से अपनी बात कही है।
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