बुधवार, 23 जुलाई 2008

जिसका गुन हरचरना गाता है....

मिथिलेश कुमार सिंह

आइए...भारतीय राजनीति के मछली बाजार
में...मैं आपका स्वागत करता हूं...हिचकिए मत...चले आइए...अगर आप शरीफ
हैं...इस बाजार से आपका पहले वास्ता नहीं पड़ा है...तो नाक पर रूमाल रख
लीजिए...सड़ांध है यहां...आप गश खाकर गिर सकते हैं...मुझे आदत है...मैं
आम आदमी हूं...इस बाजार के फरमान ही मेरी तकदीर तय करते हैं...मुझे कितना
कमाना है...कितना खाना है...कितना बोलना है...कितना लिखना है...सब यही
लोग बताते हैं....चौंकिए मत...हम गुलाम नहीं हैं...आजाद हैं...और ये जो
बाजार है ना साहब....इसे हमारे लोग संसद कहते हैं...इसमें हमारे नुमाइंदे
रहते हैं...कितने प्यारे चेहरे हैं...वो कहते हैं ना साहब के....
"सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है...
मगर जब गुफ्तगू करता है चिंगारी निकलती है...
कुछ ऐसा ही है यहां....हम तो इसकी पूजा करते थे...लेकिन पिछले कुछ सालों
से हमारा इस मंदिर से भरोसा उठ गया...कुछ अजीब सा माहौल है यहां...पहले
मुद्दों पर बहस होती थी....आज बहस में से लोग मुद्दे निकालते हैं....चोर
हैं यहां...उचक्के हैं...दमड़ी के दलाल हैं सब...बच के ना रहे तो चमड़ी
भी उधेड़ लेंगे...देखा ना आपने....नोटों की गड्डियां....हमारे मंदिर
में...चलो साहब...इसी बहाने देश के करोड़ों लोगों ने करोड़ रूपया तो देख
लिया...नहीं तो सबसे बड़ी नोटों की गड्डी तो तभी दिखती हैं जब बाबू जी
बहन की शादी के लिए दहेज का पैसा घर लाते हैं...खैर संसद में चोर-उचक्के
बैठेंगे तो यही होगा ना...अरेरेरे...घबराइये मत...ये शोर तो यहां आम बात
है....ये शोर ना हो तो बाजार का फील ही नहीं होता...ऊंघने लगते हैं
लोग...देश जाए खड्डे में...बहस न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर...और यहां
सिर्फ उखाड़े गए गड़े मुर्दे...खींचा-तानी चलती रही...खूब कीचड़ उछाले
गए....अपनी पीठ ठोंकी गई...क्या करें साहब...अब सीना ठोंकने की किसी की
औकात नहीं रही...कैरेक्टर नहीं रहा ना साहब....सब अपने जुगाड़
में...सरकार गिरी तो अलाने का फायदा....नहीं गिरी तो फलाने का....देश गया
खड्डे में...शशिकला का बेटा कलेक्टर बनेगा...लोग मुस्कुरा रहे थे
साहब...बिजली नहीं है...पानी नहीं...पता नहीं बड़ा होगा भी या
नहीं....विदर्भ का है ना साहब...क्या पता...वो तो रोटी बेलता है...खेलने
वाले तो यहां बैठे हैं...सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं...सबकी 'पाइपलाइन'
में बड़े-बड़े प्रोजेक्ट हैं...पाइपलाइन समझते हैं ना....ये गड्डियां उसी
पाइपलाइन से आती हैं...खैर...दो दिन खूब मजा आया...दुश्मन दोस्त बन
गए....दोस्त दुश्मन बन गए....जिन घोड़ों को चार साल किसी ने घास नहीं
डाली...आज घुड़दौड़ के समय उन्होंने खूब नखरे दिखाए...जम के कलाबाजियां
खाईं....जब तक पेट नहीं भरा...हिनहिनाए नहीं....हमारा देश सेकुलर
है...हमें भी इन्हीं लोगों ने बताया...कौन सेकुलर हो कौन नहीं...यही हमें
बताते हैं...खैर साहब...शुरूआत विडंबना से हुई थी...खत्म भी वहीं से करते
हैं....विडंबना ये कि जो बहस मंहगाई और आत्महत्या के मुद्दे पर होनी
चाहिए थी...वो न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर हो रही थी...विदेश नीति आम
आदमी नहीं जानता भाई...उसे ये पता है कि प्याज और पेट्रोल मंहगा होगा तो
सरकार को वोट नहीं देना है...विडंबना ये कि देश के सम्मान का प्रतीक रहे
इस मंदिर में जेल से सवारियां आती हैं...विडंबना ये कि स्वस्थ बहस की
परंपरा दम तोड़ रही है...संसद में लहरा रही हैं नोटों की
गड्डियां....कितनी गिनाएं...कहां तक गिनोगे...छोड़ो साहब...चलो...पेप्सी
वाला ब्रेक लेते हैं....रात में दो पैग रम मारेंगे...सारे गम सुबह तक
साफ....फिर वही जन-गण-मन गाएगा हरचरना....फटा सुथन्ना पहने....अपना लड़का
है साहब...सपने तो देखो स्साले के....लीडर बनना चाहता है....

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

हम भी जन-गण-मन गाने लगे...
हरचरना और हमारे सपने-सेम टू सेम निकले. हाँलाकि रुमाल धरे हैं नाक पर. :)

Harish ने कहा…

dosto is jamane ko kya ho gaya
tarabano faizabadi ki ye gajal suniye aur desh ki barbadi ka jashn manaiye
harish

Harish ने कहा…

sari duniya bhang khake mast hai
chand backword(old dated)log adjust nahi kar pa rahe